लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


फिर मौन। फिर भुवन सहसा सिहरता है, एक काला बादल-सा उसके सिर-माथे पर छा गया है और चारों ओर से बहता हुआ-सा उसे डुबाये जा रहा है - वह लड़खड़ा जाएगा और धँस जाएगा - आँखों के आगे अँधेरा हो रहा है - टटोलते से हाथ वह अपने सिर की ओर, सिर के ऊपर उठाता है।

ऊपर गौरा का झुका हुआ सिर है; उसके खुले बाल आगे ढरक आये हैं और भुवन के चेहरे पर छा गये हैं - भुवन का हाथ स्तब्ध रुका रह जाता है, वह बादल भी स्थिर रुका रह जाता है - फिर टप से एक बूँद उसके माथे पर बरस जाती है।

भुवन के दोनों हाथों की उँगलियों ने ढरके हुए बालों की एक-एक लट पकड़ ली। फिर एक हाथ उसने छोड़ दिया, हाथ बढ़ाकर गौरा के माथे को धीरे-धीरे थपकने लगा।...

“राह चलते जिस दिन बैठे-बैठे जानूँगा कि मेरे पीछे कोई है और मुड़कर नहीं देखूँगा, और वह झुककर अपने खुले बाल मेरी आँखों के आगे डाल देगी, उस दिन मैं जान लूँगा कि मेरी खोज-मेरे लिए खोज समाप्त हो गयी और पड़ाव आ गया।”

यह किसने कहा था? मानो किसी पुस्तक में पढ़ी हुई भविष्यवाणी है यह।

सहसा भुवन ने कहा, “गौरा, अब तुम इस सारी बात को भूल जाओ-शायद मुझे तुम्हें कहनी ही न चाहिए थी, व्यर्थ...।”

गौरा ने दोनों हाथ भुवन के कन्धों पर रख दिये, और धीरे-धीरे सीधी खड़ी हो गयी। पीछे खड़ी-खड़ी ही बहुत धीमे, खोये-से स्वर में बोली, “तुम-तुम कभी पछताओगे तो नहीं मुझे यह सब बता देने पर? मैं....।”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book