लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“...तुलियन में हम चार दिन रहे; फिर मैं उसे पहुँचाने पहलगाँव आया; रास्ते में नदी के आर-पार पड़े एक तख्ते के बीच में खड़े होकर उसने कहा - उसने मुझे कहा - मुझ से पूछा कि जीवन में मेरी आकांक्षा क्या थी? मैंने बताया, सर्जन होने की; वह स्वयं बीनकार होना चाहती थी - फिर उसने कहा, 'उसे मैं वीणा भी सिखाऊँगी, और सर्जन भी बनाऊँगी' - फिर वह चली गयी मैं तुलियन लौट गया काम करने...।”

आग लपकती और गिरती; कभी एक अध-जली लकड़ी बीच में से टूटकर गिरती और आग का एक भाग दबकर अँधेरा या नीलाभ हो जाता, फिर फुरफुराकर एक छोटी-सी शिखा उसमें से उमग आती और बढ़ जाती। उसी प्रकार भुवन का स्वर कभी मद्धिम पड़ जाता, कभी धीरे-धीरे ऊँचा उठ जाता, कभी उसकी वाणी क्षणभर अटक कर फिर कई-एक द्रुत चिनगारियाँ फेंक देती - यद्यपि साधारण रूप से उसकी बात फुलझड़ी-सी नहीं थी, न उसमें तारा-फूलों की लड़ियाँ थीं, न घटती-बढ़ती कलाओं का आकर्षण, न वह चटचटाहट जो स्फूर्ति देती है, न वह रंग-बिरंगी चमक जो लुभा लेती है...वह थी महताबी की तरह, जिसके भीतर के अंगारे बूँद-बूँद टपकते हैं, पिघली हुई आग के आँसुओं की तरह, जो हवा में भी झरते हैं, पानी के नीचे भी झरते हैं, चुप-चाप, बेरोक झरते जाते हैं, जलते जाते हैं...।

“...लेकिन दुबारा जब मैं गया तब-वह बदल गयी थी - मेरी सात-आठ दिन की अनुपस्थिति में उसे ऐसी चिट्ठियाँ आयी थीं कि - मेरी बात उसे आश्वस्त नहीं रख सकी थी और उसने आपरेशन करा लिया था। यह बात मेरे ध्यान में भी न आयी थी - पर मुझे उसे छोड़कर नहीं जाना चाहिए था क्योंकि तब शायद उसका विश्वास न टूट जाता - मैं...।”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book