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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


गौरा उसके सामने की ओर, अँगीठी के सामने बिछे गलीचे पर बैठने लगी। अधबैठी ही थी कि भुवन ने जल्दी से और एक अजब रुखाई के साथ कहा, “रेखा को तुम जानती हो - आइ लव्ड हर।”* (* मैं उसे प्रेम करता था। )

गौरा बैठती-बैठती रुक गयी। धीरे से बोली, “जानती हूँ।” थोड़ा-सा रुककर, “आइ लव हर टू।”* (* मैं भी उसे प्रेम करती हूँ। )

भुवन ने चकित भाव से कहा, “गौरा!” फिर रुकते-से, “लेकिन तुमने तो उसे देखा ही नहीं।”

“मैं-मिली थी। लेकिन-यह-मिलने से अलग बात भी है।”

भुवन ने बात काटते हुए पूछा था, “कब?” पर वह प्रश्न बीच ही में डूब गया, दोनों चुप बैठे रह गये।

कई मिनट बाद भुवन ने कहा, “कहानी लम्बी है गौरा। पर-बहुत छोटी भी है।” सहसा एक कठोर, निष्करुण भाव से, “आइ लव्ड हर। वी वेयर टु हैव ए चाइल्ड। आइ किल्ड हिम।”* (* मैं उसे प्रेम करता था। हमारी सन्तान होने वाली थी। मैंने उसे मार दिया।)

“अ-” गौरा के मुँह से निकला; दोनों की आँखें मिलीं तो भुवन ने देखा, गौरा की आँखों में व्यथा है, विमूढ़ता है, और-अविश्वास है। गौरा धीरे-धीरे बोली, “झूठ मत बोलिए, भुवन दा; अपने को ऐसे क्यों कोस रहे हैं?”

भुवन ने सहसा उबलकर कहा, “कोसूँ भी नहीं गौरा-तुम नहीं जानती कि मैंने क्या किया है!”

“एक रूखी बात कहूँ, भुवन दा? आप कहना चाहते हों तो-बात कहें, जजमेण्ट आप मुझे न दें-वह करना होगा तो मैं स्वयं करूँगी।” सायास मुस्करा कर गौरा बोली, “उतनी कठोर भी हो सकती हूँ-आप की शिष्या हूँ आख़िर!”

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