ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने हाथों से आँखें ढँक ली, जैसे चौंध लगती हो। उसका शरीर एक बार सिहर गया।
गौरा ने कहा, “मैं आग जला देती हूँ, सर्दी बहुत है! और आप कुछ ओढ़ लीजिए।”
भुवन ने तड़प कर कहा, “नहीं गौरा, आग नहीं!”
गौरा बिस्तर पर से कम्बल उठाने मुड़ी थी, ठिठक गयी। फिर उसने कम्बल उठाकर धीरे से भुवन के कन्धों पर डालते हुए कहा, “क्या बात है भुवन दा-चीड़ की आग तो बड़ी स्निग्ध होती है-आप को अच्छी लगेगी।”
“नहीं, नहीं, मुझे आग में चेहरे दीखते हैं!”
गौरा ने पीछे खड़े-खड़े ही दोनों हाथ भुवन के कन्धों पर रखते हुए कोमल स्वर से पूछा, “किसके चेहरे, भुवन दा?”
“चेहरे - मृत चेहरे - बच्चों के चेहरे।” गौरा के हाथों के नीचे उसका शरीर एक बार फिर सिहर गया।
गौरा क्षण-भर अनिश्चित खड़ी रही। फिर उसने सहसा भुवन के सामने जाकर कहा, “भुवन दा, अब और नहीं मानूँगी। बताइये क्या बात है।” जैसे साहस बटोर कर उसने दोनों हाथ-भुवन के कानों पर रखे, उनके हलके दबाव से भुवन का मुँह ऊपर उठाते हुए कहा, “देखिए मेरी तरफ़ देखिए-आपको बताना होगा!”
उनकी आँखें मिलीं, दोनों स्थिर एक-दूसरे को देखते रहे। गौरा ने लगभग अश्रव्य स्वर में कहा, “मैं पूछती हूँ, भुवन, नहीं बताओगे तुम?”
भुवन ने उत्तर नहीं दिया; दोनों वैसे ही देखते रहे। फिर गौरा के हाथ धीरे-धीरे शिथिल होने लगे-वह हार गयी है - और भुवन नहीं बोलेगा, कि भुवन ने कहा, “अच्छा गौरा, बताता हूँ। अच्छा, तुम बैठ जाओ।”
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