ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
कहाँ है भुवन? किस चिन्ता में है - नहीं, चिन्ता तो निरी विचार की अवस्था होती है, किस गहरी अनुभूति में है?
लेकिन यह भुवन का निजी क्षण है, निजी अनुभूति है; ऐसे उसे देखते रहना चोरी है। बड़े कोमल स्वर में गौरा ने कहा, “भुवन दा, क्या बात है, नींद नहीं आती? बत्ती जला दूँ?”
भुवन बड़े जोर से चौंका। खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद हक्का-बक्का-सा उसे देखता रहा। “गौरा, तुम-तुम!”
गौरा ने फिर कहा, “थोड़ी देर आपके पास बैठूँ? आप कुरसी पर बैठिए।” और वह स्वयं अँगीठी के आगे से तिरस्करिणी हटाकर, अँगीठी के लकड़ी के चौखट पर बैठ गयी, कुरसी के सामने।
भुवन कुछ अतत्पर भाव से बैठ गया। फिर जैसे शून्य को भरने के लिए कुछ कहना ही है, ऐसे बोला, “मैं सो गया था, फिर-चौंक गया।”
“क्यों-कोई सपना देखा था?”
“शायद। नहीं-कोई रोया था!”
“रोया था? नहीं भुवन दा-रोने की आवाज़ कहाँ से आ सकती है-”
“हाँ,” भुवन ने साग्रह कहा, “चिड़िया का बच्चा रोया था।”
गौरा ने विस्मय को दबाकर क्षण-भर बाद फिर कहा, “बत्ती जला दूँ?”
“न। अच्छा, जला दो।”
गौरा ने टेबल लैम्प जला दी। लचकीले तार के स्टैण्ड वाली लैम्प थी, उसे दबाकर उसने नीचा कर दिया, प्रकाश दीवार पर पड़ने लगा और वहाँ से प्रतिबिम्बित होकर कमरे में फैला।
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