ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
वह धीरे-धीरे जाकर लेट गया। थोड़ी देर बाद सहसा उठा, कोट टटोलकर उसने उसमें लगा हुआ नरगिस का डाँठा निकाला और सिरहाने रखकर फिर लेट गया। फूलदान के नरगिसों की भारी, सालस, स्तब्ध गन्ध सारे कमरे में फैल गयी थी, सिरहाने रखे एक वृन्त की गन्ध अलग नहीं पहचानी जाती - पर वह एक वृन्त उपयोगिता के विचार से थोड़े ही वहाँ रखा गया है...। क्या यह वृन्त भी बात करना चाहता है? अच्छा तो अब की उससे चूक नहीं होगी, वह सुनेगा, और वृन्त को कान के पास रखकर सुनेगा निहोरे करके-उसके तन्द्रिल मन में एक अधूरा पद तैर आया : 'लपिंतु किमपि श्रुतिमूले'-श्रुतिमूल में कुछ धीरे से कहने को - कौन? क्या वह ऊँघ गया...।
गौरा जाग कर उठ बैठी। किसी अनवरत शब्द ने उसे जगाया था। उसने सुना : पैरों की चाप, पाँच-सात पगों के बाद एक अन्तराल, फिर पाँच-सात पद। भुवन के कमरे से आ रही है आवाज़, तो भुवन कमरे में चक्कर काट रहा है - लेकिन चाल भी समान नहीं है; क्या गौरा कल्पना कर रही है, कि सचमुच वह पद-चाप उद्वेग की सूचक है? उसने घड़ी देखी : साढ़े-बारह; फिर उसने एक चादर कन्धों पर और अपने खुले बालों पर डाली और दबे पाँव कमरे से बाहर हो गयी।
भुवन के द्वार पर वह ठिठकी। पैरों की चाप और भी असम हुई, फिर सहसा रुक गयी।
गौरा ने सावधानी से किवाड़ खोला; वह ज़रा-सा चरमराया और फिर चुपचाप खुल गया। भीतर होकर किवाड़ फिर धीरे से उढ़का कर गौरा वहीं खड़ी रही, आगे नहीं बढ़ी; इधर-उधर सटे हुए पर्दों में से एक को हाथ से पकड़े हुए, आधी पर्तों की ओट। कमरे के फीके अन्धकार में खोजती हुई उसकी आँखों ने देखा, भुवन खिड़की के पास फ़र्श पर बिछे गलीचे पर बैठ गया है, कुछ वैसी मुद्रा में जैसी चित्रों पर धनुष पर चिल्ला चढ़ाते हुए कुमार राम की होती है - लेकिन वैसी कसी हुई नहीं, परास्त; एक घुटना भूमि पर, दूसरे पर कोहनी टिकी हुई; उठा हुआ हाथ धीरे-धीरे माथे पर आ टिका और माथे को पकड़े रहा...।
|