ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
फिर एक लम्बा सन्नाटा रहा। फिर भुवन ने कहा, “अच्छा गौरा, आग जला दो। मैं कहता हूँ।”
गौरा ने कहा, “सच, भुवन दा? आप नहीं चाहते तो कोई जरूरत तो नहीं है”
“नहीं, जला दो। अगर दीखेगा ही तो देखता जाऊँगा और कहता जाऊँगा।”
गौरा ने आग जला दी। क्षण ही भर में चीड़ की कुकड़ियों ने आग पकड़ ली, प्रकाश जहाँ-तहाँ नाचने लगा, चीड़ के सोंधे, उदार, हृद्य गन्ध-धूम ने वातावरण को छा लिया, जैसे खुले वनाकाश की साँस वहाँ आकर बस गयी हो।
“गौरा, मैं भाग गया था-तुम से भागा था-पर तुमसे भागने के लिए ही नहीं-एक बोझ मुझे दबाता लिए जा रहा था-मेरे कन्धों पर सवार सागर का बूढ़ा-” भुवन कुरसी से उतर कर नीचे गलीचे पर बैठ गया, आग के निकट आकर आगे झुका हुआ बड़ी-बड़ी अपलक आँखों से आग की लपटों को देखता हुआ। गौरा भी अपलक उसे देखने लगी; भुवन की आँखों में ऐसा आविष्ट, मन्त्र-मुग्ध भाव उसने कभी देखा नहीं था-मानो भुवन उसे भूल गया है, देश-काल-परिस्थिति सब भूल गया है, केवल लपटों में ही उसका अस्तित्व केन्द्रित हो गया है, उसी में से वह प्राण खींच रहा है...।
एक अद्भुत भाव गौरा के भीतर उमड़ आया : कुछ डर, कुछ आशंका, कुछ जुगुप्सा, कुछ श्रद्धा, और सबके ऊपर एक आप्लवनकारी स्नेह...कुछ बहुत निजी, बहुत पवित्र, जिसे उघड़ा नहीं देखते, बहुत निकट से नहीं देखते-ऐसे भाव भर कर वह उठी और भुवन के पीछे जाकर कुरसी पर बैठ गयी। भुवन मानो अकेला होकर, कुछ और भी आगे झुककर, धीरे-धीरे बोलने लगा।
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