ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
अब फिर - आप ने मुझे माफ कर दिया है, मुर्च्छा से जगा दिया है - अब फिर आप दूर ठेल कर डूब दे जाएँगे? जैसे कोई दुःस्वप्न देखकर जब जागता है तो आँख खोलते डरता है - कि न जाने क्या दीख जाये, न जाने कहीं सपने के भयावने आकार सचमुच न सामने आ जायें यद्यपि आँख खोलने में ही उनसे निस्तार है - स्वप्न की मोहावस्था से छुटकारा है - वैसी ही मैं हो रही हूँ; दुःस्वप्न से डर गयी हूँ पर प्रकाश में आँखें खोलते डर रही हूँ; धीरे-धीरे आँख खोल रही हूँ, कि प्रकाश की अभ्यस्त हो जाऊँ, फिर चारों ओर नज़र डालूँ - भुवन दा, मुझे फिर डरा न दीजिएगा, प्रकाश में मैं फिर वे भयावने आकार न देखूँ...मैं तो यह भी कर सकती हूँ कि अब आँखें मीचे ही पड़ी रहूँ, जब तक आप ही आकर न जगायें और कहें कि उठो, कहीं कोई डर नहीं है, देखो मैं हूँ...आप कहेंगे कि यह वयस्क दृष्टि नहीं है, बच्चों की-सी बात है - कह लीजिए; आपके सामने बच्चा बनते भी मुझे डर नहीं है। आपने कन्धों चढ़ाया था, सिर चढ़ाया था; मैं उसी की आदी हो गयी हूँ। आप पटक दीजिए; तब बिना रोये चल भी लूँगी, तब तक अपने-आप तो अपनी जगह से हटती नहीं।
आप कहेंगे इतरा रही है - रही हूँ न? नहीं भुवन दा, आप कहेंगे तो तुरत हट जाऊँगी, नहीं भी कहेंगे, तो जभी जानूँगी कि आप वैसा चाहते हैं, चाह सकते हैं, या उसमें आपका हित या सुख या शान्ति है, तो भी हट जाऊँगी।
आप बिलकुल स्वस्थ हैं न? मुझे शीघ्र पता दीजिए।
गौरा
भुवन दा,
आप बड़े अच्छे हैं। पिताजी का पत्र आया है कि आपकी चिट्ठी उन्हें मिली है; चलिए आपने मुझे न लिखकर उन्हें तो लिखा, अच्छा ही किया। पर उन्होंने यह भी लिखा है कि आप फिर और कहीं दूर जाने की सोच रहे हैं - यह क्या मामला है? क्या इसीलिए मुझे पत्र नहीं लिखा कि मैं दुःखी हूँगी? पर भुवन दा, मेरे लिए कितनी भी दुःखद खबर क्यों न हो, आप सीधे मुझे लिखिए। ख़बर कैसी भी हो, उससे मुझे जितना क्लेश होगा उससे ज्यादा इस बात से कि वह मुझे सीधे आपसे नहीं मिली, औरों के जरिये मिली...मैंने तो सोचा था-पर जाने दीजिए जो सोचा था!
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