ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
पिता जी मसूरी ही हैं, माँ भी। अब वहीं रहेंगे-वहाँ अपना मकान ले लिया है। अब की बार मैं जाऊँगी तो उसको ठीक-ठाक सजा दूँगी। और आप जब आवेंगे तो आप को पहले सीधे वहीं आना होगा - मैं हुई तो भी, और न हुई तो भी क्योंकि तब ख़बर मिलते ही आ जाऊँगी - फिर चाहे जहाँ आप जावें! पिताजी आप को बहुत याद करते हैं। आप जो ऐसे चुपके से चले गये, उसका उन्हें खेद भी है - यद्यपि कभी कहेंगे नहीं।
मैं बहुत परिश्रम कर रही हूँ, सोचती हूँ, अगले साल फिर दक्षिण चली जाऊँ; कम-से-कम एक वर्ष के लिए और हो सका तो दो के; पर अभी कुछ स्पष्ट नहीं सोच पायी हूँ। आपका परामर्श चाहती – पर आप आवेंगे तभी पूछूँगी। कब आवेंगे आप? मैं दिन गिनती रहूँगी।
गौरा
भुवन दा,
बस अब आप आ जाइये वापस - मैं पापा को लिख रही हूँ कि आप आकर मसूरी रहेंगे, और एक कमरा आपके लिए तैयार कर दिया जाये - वह आपके लिए तैयार ही रहेगा, आप जब भी आवें। वह आपका ही कमरा रहेगा, भूलिएगा नहीं।
भुवन दा,
आप फिर चुप लगा जाएँगे? जब से आप को जाना, तब से कभी नहीं सोचा कि ऐसा होगा-यों आप चिट्ठी नहीं लिखते थे पर वह इसलिए नहीं होता था कि आप कुछ नहीं बताना चाहते, वह इसीलिए होता था कि बताने की ज़रूरत नहीं, मुझे मालूम है...पर अब? आहत होकर मैंने सीख लिया कि नहीं, ऐसा भी हो सकता है कि आप मुझे बहुत-सी बातों से दूर रखना चाहें - कुछ सीखकर फिर मैंने उसे भी स्वीकार कर लिया; आप ही ने दूर हटा दिया तो मैं कौन-सा मुँह लेकर पास आने या बुलाये जाने का आग्रह करूँ?
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