ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
गौरा द्वारा भुवन को :
भुवन दा,
मेरे भुवन दा! आज मेरी साधना फली है, और जी होता है, आपकी चिट्ठी सामने रखकर गा उठूँ, कोई वाद्य लेकर-सितार, नहीं वीणा लेकर बजाने बैठूँ मोहन रागिनी, और घंटों बजाती रहूँ, जब तक कि हाथ सन्न न हो जायें-हाथ ही, मेरा उत्साह नहीं, मेरे प्राणों की वह हँसी नहीं जो किसी तरह आप तक पहुँचकर आपके पैरों से लिपट जाना चाहती है!
लेकिन फिर दुबारा आपकी चिट्ठी पढ़ती हूँ, और मेरी मोहन रागिनी सहसा धीमी पड़कर नीलाम्बरी में बदल जाती है। भुवन दा, यह सब क्या है, आप क्या सोचते हैं, क्या वह कष्ट है जो आप इस तरह छिपाये बैठे हैं? छिपाये भी नहीं, कष्ट है यह तो दीखता ही है, और कष्ट के कारण आप अन्याय भी कर जाते हैं कि अगर कष्ट दीखता न होता तो आपका पत्र पानेवाला मर्माहत होकर बैठ जाता - क्या है यह कष्ट कि आप उससे ऐसे हो गये? मैं बार-बार पत्र पढ़ती हूँ, और सोचती रह जाती हूँ कि क्या यह भुवन दा का ही पत्र है, मेरे भुवन दा का...। आप मुझे लिखिए - बताइये कि क्या बात है - क्या मैं किसी काम नहीं आ सकती? एक बार आपने कहा था, 'गौरा, अब से तुम से बराबर-बराबर बात करूँगा', बराबर तो मैं कभी नहीं हो सकती पर अगर आप बिलकुल छोटी ही नहीं मानते तो क्या मुझे अपना पूरा विश्वास देंगे?
ऐसी बुरी-बुरी बातें मत सोचिए, भुवन दा! मैं तो कहती हूँ, आप आइये, आकर आप पाएँगे कि आपका डर बिलकुल निर्मूल है। यह नहीं कि आप सच नहीं हैं, जैसा आप ने लिखा है, बल्कि आप ही सच हैं-क्योंकि आप दूसरों को भी जीवन देते हैं। सच भुवन दा, आप कब तक जावा में बैठे रहेंगे? अब आ जाइये न।
|