ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
पश्चिम धीरे-धीरे रंजित हुआ, फिर लाल, फिर और लाल, फिर उस लाली में उदासी आने लगी...मैंने कहा, गौरा, एक दिन तुम्हें मैं अपनी कहानी सुनाऊँगा, लाल और उदास...फिर धीरे-धीरे अँधेरा हो चला, आकार ओझल होने लगे और एक हलकी-सी हवा झील की ओर ले बह निकली। मैंने कहा, नहीं गौरा, कुछ नहीं सुनाऊँगा, सुनाने को है ही क्या, चुपचाप सिर झुका लूँगा और प्रतीक्षा करूँगा कि तुम्हारे क्षमा-भरे, करुणा-भरे हाथ मेरे माथे को छू दें...। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हवा के झोंके से तरंगायित यह झील एकाएक सूख जाये, लुप्त हो जाये, कि उसे निरन्तर भागते हुए वाष्पयानों के धक्के न सहने पड़ें, समुद्र में मिलकर ख़ारा न होना पड़े - ख़ारेपन में अपने को खो देते हुए भी समुद्र के बेदर्द थपेड़े न खाने पड़ें - इस दुर्गति को आत्म-समर्पण न करना पड़े! फिर ध्यान आया, ये सब रूपक व्यर्थ हैं, यह सब सुनने-समझने की फुरसत किसे है... कोई भविष्य नहीं है, कोई अतीत नहीं है, अतीत से अपने को उच्छिन्न कर लिया है इसलिए और भी कोई भविष्य नहीं है, क्योंकि भविष्य होता क्या है? अतीत का स्फुरण...केवल वर्तमान जीता है और उस वर्तमान को चाहे समझ लो - तीन ओर पानी, सामने सागौन के पेड़, दूर पहाड़ियाँ, तिरती पालदार नावें, सान्ध्य आकाश, अर्थात् सौन्दर्य और शान्ति - बाह्य वर्तमान; चाहे समझ लो एकाकीपन, ऊब, सूना, उच्चाटन, उत्कंठा अर्थात् आन्तरिक वर्तमान; दोनों एक ही हैं, एक ही वर्तमान, आगे अपनी-अपनी पसन्द है...।
सवेरे। रात में दो-तीन बजे वर्षा शुरू हो गयी बड़े जोरों से; अब कुछ ठण्ड है। मेरा शरीर भी कुछ ठीक है। कल से शायद काम करने लायक हो जाऊँ, आज अभी और आलस करने का जी है। पत्र भी लिखता रह सकता हूँ-पर सोचता हूँ, इसे इतना ही छोड़ दूँ। और लिखा तो अलग भेज दूँगा।
भुवन
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