ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
तुम सोचोगी कि इस उच्चाटन की सूचना देने का क्या अर्थ हुआ अगर साथ यह नहीं कह रहा हूँ कि मैं वापस आ रहा हूँ। पर नहीं। वापस तो नहीं आ रहा। और 'वापस' शब्द ही समझ में नहीं आता - वापस कोई कभी गया है? फिर भी मन हुआ कि इस मनःस्थिति की सूचना तुम्हें देनी चाहिए, वह दे दी...। अगर इसे तुम उद्भ्रान्ति समझो, तो ठीक है, उदभ्रान्त तो मैं हूँ...।
भुवन
मेरी प्रिय गौरा,
इस स्थान के तीन ओर पानी है - समुद्र तो नहीं, पर समुद्र से लगी हुई खारी झील का - मैं चार महाकाय सागौन वृक्षों और छः-सात ताल वृक्षों की ओट में से उसे देखता हूँ, और यह ओट उसे और भी विस्तार दे देती है। पीछे एक छोटी हरी पहाड़ी है। पेड़ों की आड़ में पानी के दूसरी पार की नीची पहाड़ियों की शृंखला है, और सागौन के बड़े-बड़े पत्तों के गवाक्ष में से दीख जाती हैं थिरकती हुई पालदार नौकाएँ। और मैं 'होम-सिक' हूँ - मान लेता हूँ कि होम-सिक हूँ - यद्यपि यह मेरे लिए एक शब्द ही है, मैं तो निर्गृह ही हूँ और यह केवल ऊब का दूसरा नाम है! पर नहीं, सच कहूँ तो तुम्हारी स्मृति से भर गया हूँ। मेरा शरीर आज ठीक नहीं है; मैं दोपहर से ही आराम-कुर्सी पर बैठा हूँ, अब रात हो गयी है; इन छः-सात घंटों में मैंने कुछ नहीं किया है सिवा तुम्हारी बात सोचने के, एक-टक तुम्हें देखते रहने के। तुम्हारी पलकों की एक-एक झपक देखता रहा हूँ; और वेणी को किरीटाकार पहने हुए तुम्हारे सिर के-क्योंकि जिसे देखता रहा हूँ, वह आज की संगीत-शिक्षिका नहीं, कई बरस पहले की विद्यार्थिनी है! एक-एक उड़ते ढीठ बाल को मेरी आशीर्वाद-भरी दृष्टि ने गिन डाला है। तुमने नहीं जाना-मेरा यह अवलोकन बिलकुल नीरव, निराग्रह, निःसम्पर्क है-मैं दूर, बहुत दूर वन की साँस हूँ, स्पर्शातीत...।
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