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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


आज तक किस का हुआ सच स्वप्न जिसने स्वप्न देखा ?
कल्पना के मृदुल कर से मिटा किस की भाग्य -रेखा?
(- नरेन्द्र शर्मा)

भुवन दा, मुझे आशीर्वाद दीजिए, बल दीजिए कि आप दूर हों चाहे पास, आपके स्नेह से मँजकर शुद्ध होकर मैं चमकती रहूँ; असफलता और निराशा मुझे कड़वा न बना सकें...

आप की ही
गौरा

 

9


रेखा द्वारा भुवन को :

भुवन,
यह पत्र तुम्हें अस्पताल से लिख रही हूँ-नहीं, तुम घबराना नहीं, यह नर्सिंग होम है, और मैं अब बिलकुल ठीक हूँ। और शुश्रूषा पा रही हूँ। मौसी भी साथ हैं, और कलकत्ते से डाक्टर भी साथ आये थे, वह भी यहीं है। बीच में चले गये थे, अब मुझे लिवाने फिर आये हैं-दीवाली के दिन में कलकत्ते पहुँच जाऊँगी और दीवाली घर पर ही होगी। तुम उस समय कहाँ होगे? दिया जलाओगे? और नहीं तो एक आकाश-दीप जला देना-मैं प्रेतात्मा तो नहीं हूँ-या कि हूँ भुवन?-पर मेरी शुभाशंसा तुम्हारे चारों ओर मंडराएगी और तुम पथ दिखा दोगे तो तुम्हें छू जाएगी...।

हेमरेज फिर हुआ था – बहुत - उसका तात्कालिक उपचार करके डाक्टर रमेशचन्द्र मुझे यहाँ ले आये थे। कुछ ग्रोथ थी भीतर। यहाँ आपरेशन हो गया; अधिक कष्ट नहीं हुआ और तब से मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ। दार्जिलिंग का जलवायु और यह शरद ऋतु की धूप-एक अलस, ताप-स्निग्ध तन्द्रा देह पर छायी रहती है, पर उस अलसानेपन में भी शरीर का पुनर्निर्माण हो रहा है, और बहुत दिनों के बाद उसे स्वस्थता का बोध हो रहा है - जैसे अब जब वह हिले-डुलेगा, कर्म-रत होगा, तो कर्तव्य भावना के कारण नहीं, शून्यता के भय के कारण नहीं, कुछ करने की माँग के कारण, स्फूर्ति के कारण, प्रवृत्ति के कारण...कैसी अद्भुत लगती है यह भूल गयी-सी भावना! और इसका श्रेय बहुत-कुछ डाक्टर रमेशचन्द्र को है। आपरेशन उन्होंने नहीं किया - मैंने ही उन्हें नहीं करने दिया - पर शुश्रूषा-चिकित्सा सब उनकी रही; चिकित्सा से भी बढ़कर उन्होंने एक गहरी संवेदना मुझे दी जिसमें मेरी गाँठ बँधी हुई कचोट मानो द्रव होकर धीरे-धीरे बह गयी...वह भी तुम्हारी तरह धुनी और कार्य-व्यस्त जीव हैं, तुम्हारी तरह कम बोलते हैं, पर जिससे भी मिलते हैं, उस पर उनका गहरा असर होता है-थकी, झुकी, अवसन्न चेतना को जैसे उनकी संवेदना तुरत सहारा देकर सीधा कर देती है। 'राइज़ अप एण्ड वाक' (उठ और चल) और 'वेरिली ही थ्रू अवे हिज़ क्रचेज़ एण्ड वाक्ड, एण्ड द पीप्ल मार्वेल्ड' (सचमुच उसने अपनी बैसाखियाँ फेंक दी और चलने लगा और लोग चकित हो गये। -बाइबिल)...तुम न मालूम स्वदेश कब लौटोगे, नहीं तो तुमसे कहती, उनसे मिलना-तुम्हें उनसे मिलकर खुशी होती, मुझे पूरा विश्वास है।

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