ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
डॉ. भुवन से भी बहुत दिन से पत्र-व्यवहार नहीं हुआ। आपसे परिचय उनके द्वारा हुआ था, पर अजब बात है कि उन तक पहुँच आप ही के द्वारा हो। आशा है आप उनके पूरे समाचार देंगी। यों मैंने उन्हें पत्र लिखा है, पर आप से जो जान सकूँगा, वह उनसे थोड़े ही : वह तो पहले भी एक सीपी में रहते थे, और पिछले कुछ महीनों के अपने अनुभवों के बाद तो बिलकुल ही पहुँच से परे चले गये हैं। मैं समझता हूँ, कोई भी गहरी अनुभूति जब गोपन रहती है, तब धीरे-धीरे गोप्ता को भी ऐसे बाँध लेती है कि फिर वही अज्ञेय हो जाता है, फिर वह चाह कर भी अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पाता; उसका रहस्य एक ऐसी दीवार बन जाता है जो कि स्वयं उसी को छिपा लेता है। कभी सोचता हूँ, क्या डा. भुवन फिर कभी हमसे, आपसे, हमारे आपके साधारण जगत् से साधारण सम्पर्क जोड़ सकेंगे? इधर आपकी उनसे भेंट हुई क्या?
रेखा जी की ख़बर जब-तब मिल जाती है। डाइवोर्स उनका हो गया है। यह जान कर आपको भी निश्चय ही सन्तोष होगा। विवाहित जीवन उनका अत्यन्त यातनामय रहा, फिर जब उन्हें जीवन में कुछ ऐसा मिला जो मूल्यवान् हो, जो जीवन को अर्थ दे, तो फिर विवाह का बन्धन ही बाधा बना...अब कदाचित् वह जीवन के बिखरे सूत्र फिर समेट सकें, उसके अर्थ को फिर पा सकें...मैं जब भी सोचता हूँ तो इसी परिणाम पर पहुँचता हूँ कि स्त्री-पुरुष का मिलन सबसे बड़ा सुख नहीं हो सकता क्योंकि उसमें प्रत्येक को साझीदार की, दूसरे की ज़रूरत है, वह परापेक्षी सुख है; सच्चा सुख निरपेक्ष और स्वतः सम्पूर्ण होना चाहिए। पर युक्ति एक बात है, और व्यवहार दूसरी; और वासना दोनों से ऊपर : हम सभी उस अनुत्तम सुख को ही चाहते हैं और पुरुष से अधिक नारी वह चाहती है...रेखा जी को मैं असाधारण स्त्री मानता था, पर अब देखता हूँ, उनका असाधारणत्व इसी में है कि वह साधारणत्व का चरमोत्कर्ष है, साधारण स्त्री की साधारण वासना अपने चरम रूप में उनमें विद्यमान है। और इसीलिए आज उनकी मुक्ति की सूचना से सन्तोष है : प्रार्थना करना चाहता हूँ कि उन्हें उनका वांछित मिले, तृप्ति मिले, शान्ति मिले...।
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