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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


आपकी संगीत-साधना कैसी चल रही है? संसार की जो गति है, उसमें नहीं दीखता है कि संगीत का भविष्य क्या है, विशेषकर भारतीय संगीत का जो इतनी साधना माँगता है, इतनी सूक्ष्मता, जिसका उदय भी रहस्य से होता है और जिसकी निष्पत्ति भी रहस्य में है - भविष्य में संगीत होगा तो जन का वह प्रकृत, पुरुष, सहज तेजस्वी स्वर सब बारीक़ियों को अपने विवाद में डुबा लेगा...फिर भी, आपकी साधना का कायल हूँ, और, और नहीं तो आपकी आनन्द-कामना से ही प्रार्थना करता हूँ कि आप को उसकी सुविधा और साधन मिले...।

मैं लखनऊ छोड़कर बम्बई जा रहा हूँ। वहीं रहूँगा। पत्र वहीं दें-देंगी न? पता रहेगा : केयर पोस्टमाटर, दादर, बम्बई।

आपका ही
चन्द्रमाधव

 

3


भुवन द्वारा चन्द्रमाधव को :

चन्द्र,
तुम्हारा पत्र मिला। दूसरे दिन तुम्हारा रेखा देवी के नाम लिखा हुआ पत्र भी उनके द्वारा भेजा हुआ, मिला, इस उलाहने के साथ कि मैं तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखता?

उन्होंने कहा है, इसलिए यह पत्र लिखे दे रहा हूँ। पर चन्द्र, कैसा रहे अगर आज से हम मान लें कि हम दोनों अजनबी हैं? क्योंकि हम मानें न माने, बात यही है; हम दो विभिन्न दुनियाओं में रहते हैं जिनमें सम्पर्क के कोई साधन नहीं हैं। विज्ञान को तुम मानते नहीं, नहीं तो उसकी भाषा में कहता कि हमारे जीवनों के डाइमेंशन अलग-अलग हैं, और इसलिए वे एक-दूसरे को काट कर भी छू नहीं सकते।

और जब हम अज़नबी ही हैं, चन्द्र, तो मेरे प्रति किसी मिथ्या लायल्टी का बन्धन तुम न मानो; जिस भी चीज़ पर तुम्हारा लोभ है, उसके लिए निर्बाध होकर जुगत करो। और मैं तुम से ज़्यादा ईमानदारी से कहता हूँ, बेस्ट आफ़ लक टु यू।

- भुवन

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