ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
ऐसा क्यों, सोचता हूँ तो कोई कारण नहीं पाता। बाह्य कारण तो हो ही क्या सकता है-आख़िर लखनऊ से बनारस जितना है सो तो हुई है, न अधिक न कम; सब्जेक्टिव ही कारण हो सकता है - पर क्या? आप तो सदा से ही दूर रहती हैं, मुझे अधिक-से-अधिक एक अवहेलना-भरी अनुकम्पा ही मिलती है; उसमें कोई परिवर्तन आने का कारण तो हुआ नहीं। तब क्या मुझी में कोई बड़ा परिवर्तन आया है? शायद यही हो। आप मुस्कराएँगी कि चन्द्रमाधव भी इंट्रोस्पेक्शन करने चला-हाँ, यह भीतर देखने की बात मुझे हमेशा नकारेपन की दलील लगती रही है-पर यह देखता हूँ कि मेरे ही अनुभव मुझे अलग ले जा रहे हैं। एक तो इधर का जैसा जीवन रहा-आप कल्पना नहीं कर सकतीं, गौरा जी, कि साधारण जीवन की साधारण मर्यादाओं को निबाहने के लिए मैंने कितना बड़ा तप किया है, कितना क्लेश भोगा है, और अब मैं भी रेखा देवी की कही हुई बात मानने लगा हूँ कि गहरा क्लेश एक व्यक्ति को और सबसे पृथक् कर देता है...दूसरे इस क्लेश ने मुझे यह सिखा दिया है कि हमारी अधिकतर मान्यताएँ केवल एक ढकोसला हैं। हमारे जीवन को, हमारे वर्ग-स्वार्थों को, वर्ग से मिलनेवाली सुविधाओं को बनाये रखने के लिए रचा गया भारी प्रपंच; और यह देख लेने के बाद उसी प्रपंच में फँसे रहना कैसे सम्भव है? यह दूसरा कारण है जिसने मुझे औरों से अलग कर दिया है-अपने वर्ग से मैं उच्छिन्न हो गया हूँ। और देख रहा हूँ कि वह कितना सड़ा है; अब उसे भस्म कर देने में ही अपनी शक्ति लगाऊँगा...। इसीलिए कहूँ कि मैं वास्तव में इंट्रोस्पेक्शन नहीं कर रहा हूँ - इंट्रोस्पेक्शन तो आदमी को निकम्मा बनाता है, कर्म-विमुख करता है, कर्म की प्रेरणा नहीं देता।
लेकिन क्या सचमुच उतना दूर चला गया हूँ? उस दिन दिल्ली में आपसे तबला सुना था; वह मानो कल की बात लगती है और उसके बोल अभी तक कानों में गूँज जाते हैं-संगीत में मेरी पहुँच नहीं है लेकिन उस दिन का अनुभव मानो एक लैण्डमार्क बन गया है और उसके सहारे मैं कई चीज़ों से सम्बन्ध जोड़ लेता हूँ जिन तक पहुँचने का और कोई सूत्र नहीं रहता...सेंटिमेन्टल बातें मुझे कहनी ही नहीं आतीं, गौरा जी; सच कहता हूँ कि उस दिन की वह भेंट मेरे लिए एक अकथनीय अनुभव था, और कदाचित् वहीं से मेरे जीवन में वह परिवर्तन शुरू हुआ जो आज देख रहा हूँ। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि आप इस प्रकार मेरी डेस्टिनी बन जाएँगी-आप! और आपने तो की ही क्या होगी, आपने तो कभी मुझे इस लायक ही न समझा होगा कि मेरी डेस्टिनी भी कुछ हो!
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