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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“न। मुझे तो अच्छा लगता है-”

“तो चलो।” फिर कुछ रुककर, “लेकिन - तुम्हारी शाल ले आऊँ - पर तुम्हारा कमरा भी तो नहीं जानता?”

“तो पहले वही देखोगे?” रेखा मधुर मुस्करायी, “नहीं वह फिर दिखाऊँगी। पर शाल तो अन्दर जाते दाहिने को टँगी है - मैंने दिन में रखी थी।”

भुवन उठा लाया।

रेखा ने कहा, “फल तो लगभग सब उतार लिए गये हैं, जिधर हैं उधर ही चलें - उधर तो कुछ धूप भी होगी।”

भुवन को याद आया। डूबते सूर्य का उन्होंने पीछा किया था, और हार गये थे। नहीं, आज वह डूबते सूर्य का पीछा नहीं करेगा; सूर्य को डूब जाने दो, पकते सेब पर उसकी धूप की चमक ही इष्ट है - उसी को वह देखेगा, उसकी लालिम कान्ति में सूर्य की धूप पकेगी, सुफला होगी...शारदीया साँझ की धूप में फलों-लदा सेब का पेड़-जीवन के आशीर्वाद का, जीवन-रूप आशीर्वाद का इससे बढ़ कर और कौन-सा प्रतीक है? शरदारम्भ अभी नहीं हुआ, अभी बरसात का अन्त ही है, फलों पर भी अभी वह सूर्यास्त की लाल-सुनहली कान्ति नहीं आयी, पर उस फले हुए जीवन-तरु को वह देख सकता है-

...देयर इज़ येट फेथ
एण्ड द फेथ एण्ड द लव एण्ड द होप आर आल इन द वेटिंग ...

(...फिर भी विश्वास है-किन्तु विश्वास और प्रेम और आशा सब प्रतीक्षा में ही हैं... -टी. एस. एलियट)

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