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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“हाँ, वह श्रीनगर में हैं - मैं निगरानी के लिए यहाँ बैठी हूँ। जब वह आएँगी तो मैं उधर चली जाऊँगी। पर अभी दो महीने शायद यही व्यवस्था रहे। फिर जब बर्फ पड़ने लगेगी तो यहाँ खाली हो जाएगा - मैं भी श्रीनगर उनके साथ रहूँगी।”

“कैसा लगता है, रेखा?”

रेखा ने गहरी दृष्टि से स्थिर भाव से उसे देखा, कुछ बोली नहीं।

सलामा ताँगेवाले को बुला लाया। भुवन ने कुछ झिझकते हुए पूछा, “एम आइ-स्टइंग विथ यू?-वैसे मैं।”

रेखा ने आँखों से ही उसे घुड़क दिया। सलामा ने कहा, “साहब का सामान मेहमान कमरे में लगा दो।”

भुवन ताँगेवाले को विदा करने लगा, सलामा ने सेवा-पटु कश्मीरी लहजे में पूछा, “चाय लाऊँ मेम साब?”

भुवन को रेखा का बोलने का ढंग अतिरिक्त मधुर लगा। यों वह सदा विनय से बात करती थी, पर भुवन ने सोचा, उसके स्वर में न बंगालियों की आदर्श-प्रियता है, न कश्मीरियों की बनावट; एक सहज शालीनता उसमें है जिसे न अकड़ना पड़ता है, न झुकना पड़ता है, जिससे प्रकृतस्थ रहकर ही वह बड़े-छोटे सबके बराबर हो जाती है...व्यक्ति का अभिजात्य क्या है, उसकी सर्वोपरि सत्ता, उसका अखण्ड चक्रवर्तित्व, यह रेखा के निकट रहकर और उसका लोक-व्यवहार देखकर समझ में आ जाता है...।

चाय के बाद दोनों बरामदे से उतर कर टहलने लगे। रेखा ने कहा, “बग़ीचा देखोगे? घूम आयें।”

भुवन ने उसकी ओर देखते हुए कहा, “तुम्हें-कष्ट तो नहीं होगा?”

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