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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


मेरा चोला लीराँ दा
इक वारी पा फेरा तक्क हाल फकीराँ दा !

(मेरा चोला चिथड़ों का है : एक बार इधर फेरा लगाकर इन फकीरों का हाल देख जाओ!)

चलते-चलते वह स्वयं भी धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी; कुछ तो उसके सुर की, और कुछ अर्थ की करुणा ने सहसा उसे छा लिया कि वह मानो उसकी अपनी करुणा हो गयी, मानो अभी लम्बी तान के साथ उसके आँसू उमड़ आएँगे...लेकिन उमड़े नहीं, रेखा बीच-बीच में रुक-रुक कर गुनगुनाती रही “तक्क हाल फकीराँ दा...तक्क हाल फकीराँ दा...” और बढ़ती रही गन्तव्य की ओर।

2


वकील से भेंट में ज्यादा समय नहीं लगा था; पर हेमेन्द्र के चेहरे पर जो कुटिल सन्तोष का भाव था, उसमें से एक झल्लाहट भी प्रकट हो रही थी। उसे क्या कहना था, वह अच्छी तरह जानता था, आने से पहले मलय में भी उसने कानूनी सलाह ले ली थी और दिल्ली के इस वकील से भी पत्र-व्यवहार कर लिया था; दूसरी ओर वकील भी तलाक़ के कानून का पारंगत था और उसे जो कहना था वह न केवल अच्छी तरह जानता था बल्कि साफ़ सुलझे, सान पर चढ़े हुए चाकू की तरह बेलाग फ़िकरों में कह भी सकता था। ऐसी भेंट का अपना एक रस होना चाहिए था, पर हेमेन्द्र की झल्लाहट की वजह दूसरी थी।

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