ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
मेरे भुवन,
तुम्हें जब-तब पत्र लिखती रही हूँ-जान-बूझ कर देर-देर से; पर एक महत्त्व की बात फिर भी नहीं लिखी, क्योंकि ठीक जानती नहीं थी...अब लिखती हूँ-अब जानती हूँ, पर लिखने से पहले बहुत सोचा है कि लिखूँ या नहीं।
वह बीनकार-सर्जन वाली बात सच है, भुवन। मैं भगवान् का आशीर्वाद तुम्हारे लिए माँगती हूँ, और तुम्हारे चरण गोद में लेकर माथे से लगाती हूँ-उन्हीं के स्पर्श से वह आशीर्वाद मुझे भी घेर ले।
मुझे कुछ चाहिए नहीं भुवन, तुम्हें बताया इसलिए कि - वह भविष्य में मेरी आस्था है भुवन, और उसे तुम ने मुझे दिया है! अगर अब हम न मिले, तो भी वह भूलना मत।
थोड़ी देर बाद वह फिर उठी; धीरे-धीरे खड़ी हुई, दो-चार कदम चली, और फिर बग़ीचे के पार चल पड़ी। चिट्ठी किसी और को भी दी जा सकती थी, पर वह स्वयं ही जाएगी, स्वयं ही उसे बक्स में छोड़ेगी और इस निमित्त से थोड़ा टहलना भी हो जाएगा-बगीचे से निकल कर टेढ़ी-मेढ़ी सड़क से नीचे बड़ी सड़क तक, कुछ आगे गाँव के सिरे तक जहाँ लेटर-बक्स लगा है, फिर दूसरी ओर सड़क के मोड़ तक जहाँ से उपत्यका की चितकबरी ओढ़नी पर लगा हुआ नदी का बल खाता हुआ गोटा चमक जाता है - यद्यपि इस बदली में वह चमकेगा नहीं, सीसे-सा झलकेगा - जैसे बहुत-बहुत पुरानी सफ़ेद जरी हो...पुरानी तो है ही - न मालूम कितना पुराना गोटा है, और न मालूम उससे भी कितनी पुरानी यह धूसर ओढ़नी..। .रेखा को एक पंजाबी टप्पा याद आ गया, जो उसने घूमते हुए एक दिन किसी राह चलते बूढ़े सिख को गाते सुना था :
|