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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


पहले दो-एक बार उसने बेटी को भेजा था कि बाबू जी के जूते खोल दे। पर फिर उसकी समझ में आ गया था कि बच्चों को देखकर उसे और भी झल्लाहट होती है; तब से वह शाम को जहाँ तक हो सके बच्चों को उसकी नज़र से दूर रखती थी, स्वयं आती थी। चन्द्र उसकी उन सेवाओं को बिलकुल उदासीन भाव से स्वीकार कर लेता था। कभी जब वह टाई खोल कर उसे कालर से निकालने के लिए उसके ऊपर झुकती तो उसकी कमीज़ के गले के भीतर से उसके उरोजों का जो थोड़ा-सा हिस्सा उसे दीख जाता उसे वह स्थिर दृष्टि से देखता रहता, कभी-कभी उस दृष्टि को लक्ष्य करके वह लजा जाती; कौतूहल से चन्द्र सोचता कि अगर वह नौकरानी होती, या कोई और स्त्री होती, तो चन्द्र उससे छेड़-छाड़ करना चाहता और शायद कमीज़ का गला पकड़ कर अपनी ओर खींच लेता, पर वह तो उसकी स्त्री थी जो उसके खींचने पर झुक जाएगी, हाथ बढ़ाने पर सहलेगी, चौंकेगी नहीं, विरोध नहीं करेगी, निषिद्ध के रोमांचकारी रस से उमड़े-सिमटेगी नहीं...वह वैसा ही स्थिर देखता रह जाता, पर उसकी आँखों का केन्द्रित भाव बिखर जाता, फिर वह एक करवट हो जाता, पत्नी चली जाती तो उठकर कपड़े बदल लेता...।

बरसात जमकर शुरू हो गयी थी। पार्कों की स्वैरिणी हरियाली बढ़कर सड़क की पटरियों पर भी अधिकार जमाने लगी थी; संकर स्थापत्य की नवाबी इमारतों की छोटी-छोटी अलंकृतियाँ उसमें ऐसे खो गयी थीं जैसे किसी बग़िया में छोटी-छोटी फुलवाड़ियाँ। चन्द्र काफ़ी हाउस में बैठकर बारिश का शब्द सुना करता; पक्की सड़क पर बड़ी-बड़ी बूँदों की कोड़ें जैसी मार का स्वर न जाने क्यों उसकी पहले से तनी हुई शिराओं में एक नयी उत्तेजना भर देता : वह लगातार एक के बाद एक कई सिगरेट फूँक डालता, फिर कभी-कभी अपनी मेज़ से उठकर दूसरी मेज़ पर चला जाता जहाँ दो-चार लेखक-पत्रकार मिश्र जाति के लोग प्रायः सिगार पीते और बहस करते बैठे रहते थे।

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