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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


अवध की शामें मशहूर हैं, लेकिन हज़रतगंज में शाम मानो होती नहीं, दिन ढलता है तो रात होती है। या शाम अगर होती है तो अवध की नहीं होती - कहीं की भी नहीं होती, क्योंकि उसमें देश का, प्रकृति का, कोई स्थान नहीं होता, वह इनसान की बनायी हुई होती है : रंगीन बत्तियाँ, चमकीले झीने कपड़े, प्लास्टिक के थैली-बटुए, किरमिची ओठ, कमान-सी मूछों पर तिरछे टिके हुए और ऊपर से रिकाबी की तरह चपटे फेल्ट हैट...और राह चलते आदमी जिनके सामने बौने लगने लगें, ऐसे बड़े-बड़े सिनेमाई पोस्टरों वाले चेहरे - कितना छोटा यथार्थ मानव, कितने बड़े-बड़े सिनेमाई हीरो - अगर लोग सिनेमा के छाया-रूपों के सुख-दुःख के सामने अपना सुख-दुःख भूल जाते हैं तो क्या अचम्भा, उन छाया-रूपों के स्रष्टा एक्टर-एक्ट्रेसों के सच्चे या कल्पित रूमानी प्रेम-वृत्तान्तों में अपनी यथार्थ परिधि के स्नेह-वात्सल्य की अनदेखी कर जाते हैं तो क्या दोष...यथार्थ है ही छोटा और फीका, और छाया कितनी बड़ी है, कितनी रंगीन, कितनी रसीली...।

काफ़ी हाउस की काफ़ी न मालूम गोमती के कीचड़ से बनने लगी है - उसमें कोई जायका नहीं है। है तो कुछ मिट्टी का, पर नहीं, जली हुई मिट्टी का है। अधिक तपे हुए आँवे में जो ईंटें जलकर काली हो जाती हैं, उन्हें पीस कर कहवा बनायें तो शायद...चन्द्र का जी होता, काफ़ी फ़र्श पर थूक दे, पर जैसे-तैसे वह उसे लील लेता; फिर उस घूँट का उत्तर-स्वाद धोने के लिए दूसरा घूँट भरता और उसे भी गील लेता...

अब वह काफ़ी हाउस दो बार नहीं आता था, एक ही बार शाम को आता था, पर अब बैठता था बहुत देर तक; खाने के वक़्त ही घर पहुँचता था-कभी और भी देर से-और सीधा सोने चला जाता था। स्त्री साहस करके खाने को पूछती थी तो वह अनमना-सा इनकार कर देता था; उसके स्वर में जो प्राणहीन विनय होता था उसे लक्ष्य करके पत्नी मानो बुझ जाती थी और आग्रह नहीं करती थी। हाँ, जब वह खाट पर लेट जाता, तब कभी-कभी वह जाकर उसके जूते-मोजे खोल देती, कभी हिम्मत करके गले से टाई भी उतार लेती, पाजामा उसके पास लाकर रख देती और धीरे से कहती, “कपड़े तो बदल लेते।”

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