ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
जिस दिन उसने रेखा और गौरा की भेंट करायी थी, उसके दूसरे दिन सवेरे चन्द्र फीका मुँह और झल्लायी हुई तबीयत लेकर उठा; बड़ी अनिच्छापूर्वक मुँह-हाथ धोकर चाय पीने बैठा तो उबकाई आने लगी; थोड़ा लिवर साल्ट खाकर वह फिर सो गया। तीसरे पहर उठकर उसने हजामत बनायी, नहाया; उससे तबीयत कुछ सुधरी पर 'मूड' वैसा ही चिड़चिड़ा और हिंस्र बना रहा। शाम को सिनेमा देखने से भी कोई फर्क नहीं हुआ; दूसरे दिन वही हालत रही। तीसरे दिन शाम को उसने तय किया कि गौरा से मिलने जाएगा, शायद उसे घूमने ले जाएगा या उससे संगीत सुनेगा - तबला नहीं, सितार या बेला या कुछ और। पर वहाँ पहुँचकर देखा ताला बन्द है; नौकर ने बताया कि गौरा पिता के साथ मसूरी चली गयी है। चन्द्र का वह जिघाँसु मूड फिर लौट आया; कुछ बियर पीने का संकल्प करके वह कनाट प्लेस की ओर चल पड़ा...। साँझ को वह आधे मन से रेखा को देखने पहुँचा; वहाँ भी जब मालूम हुआ कि रेखा नहीं है तब उसे तसल्ली ही हुई। रात को फिर वह कनाट प्लेस पहुँच गया; भटकते हुए उसे दो-तीन पत्रकार बन्धु मिल गये और उनके साथ वह फिर पीने बैठ गया। तीन दिन बाद रेखा से मिले बिना ही वह लखनऊ लौट गया। स्टेशन पर उसे छोड़ने पत्रकार बिरादरी के चार-छः आदमी गये थे, एक ने फ़ोटो भी ले लिया, उसे यह सब अच्छा लगा; गाड़ी में बैठा तो दिल्ली के अनुभवों का कसैला स्वाद उसके मुँह में नहीं था, और यह भी वह भूल गया था कि लखनऊ में, जहाँ वह जा रहा है, वहाँ उसकी पत्नी और बच्चे या तो आ गये होंगे या आनेवाले होंगे।
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