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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

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चन्द्रमाधव अगर देख सकता कि मलय में उस समय क्या स्थिति है, और हेमेन्द्र क्या सोच रहा है या कर रहा है, तो कदाचित् पत्र लिखने की बात उसके मन में न उठती। या क्या जाने फिर भी उठती बल्कि उसमें लिखने के लिए और भी बातें उसे सूझती, क्योंकि रेखा के प्रति एक सर्वथा निर्बुद्धि आक्रोश उसके भीतर उमड़ता आ रहा था। यों इसे वह स्वयं देख रहा हो या स्वीकार कर रहा हो, ऐसा नहीं था, उसके सामने वह स्त्री जाति के प्रति एक घृणा या प्रतिहिंसा के रूप में ही आया था, पर भीतर-ही-भीतर था वह केन्द्रित और एकोन्मुख : या अधिक-से-अधिक यह कहा जा सकता है कि उसके बिखरे हुए झाग भुवन पर भी आ पड़ते थे - पर भुवन पर उसके द्वेष का उसे बोध था, इसलिए उसे इसी का प्रक्षेपण नहीं माना जा सकता...।

मलय में तनाव क्रमशः बढ़ रहा था; और हेमेन्द्र की अंग्रेज कम्पनी ने उधर अपना काम समेटना आरम्भ कर दिया था, हेमेन्द्र बदली पर उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका में कहीं जा रहा था, जहाँ कम्पनी का कारोबार फैला था; मलय की बात और थी, पर वहाँ के सर्वथा गोरे समाज में रह सकने के लिए स्थिति में परिवर्तन आवश्यक था। जिस समय चन्द्र ने हेमेन्द्र को पत्र लिखा उस समय हेमेन्द्र दिल्ली में किसी वकील को लिखे हुए अपने पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था, जिस में तलाक की व्यवस्था के सम्बन्ध में पूछा गया था, ताकि वह अफ्रीका जाये तो अपनी विवाहिता पत्नी को साथ ले जा सके। हेमेन्द्र ने यह भी लिखा था कि आवश्यक होने पर वह भारत भी आ सकता है - यदि उससे जल्दी निपटारे की कोई सूरत न निकल आये।

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