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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चन्द्र उसकी ओर ताकता रहा। सारी घटना उसकी कुछ समझ में नहीं आयी थी, वह बैठा-बैठा सोच रहा था कि औरत नाम का जन्तु भी न जाने किस ढब का है; सहसा उत्तर भी न दे सका। रेखा ने आगे बढ़कर स्वयं बत्तियाँ जला दीं, फ़र्श पर रखा लैम्प बुझा दिया, और गा उठी :

मन मोर मेघेर संगीते ,
उड़े चल दिग्दिगन्तेर पाने श्रावण वर्षण संगीते
उड़े चल , उड़े चल, उड़े चल!

(मेरे मन , मेघ के संगीत के साथ उड़ चल दिग्दिगन्त की खोज में, श्रावण की वर्षा के संगीत के साथ उड़ चल, उड़ चल!)

गौरा लौटकर आयी, तो रेखा को कमरे के मध्य में खड़ी गाती देखकर किवाड़ के सहारे ही ठिठकी खड़ी रही।

5


रेखा को उसके ठिकाने पर पहुँचाकर चन्द्रमाधव जब वापस मुड़ा, तब उसके चेहरे पर जो परिवर्तन हुआ वह इतना द्रुत था कि उसकी रेखाओं को मानो चलते देखा जा सकता था-सलवटों का चलकर नयी जगह बैठना, नयी झुर्रियों का उभरना, आँखों पर एक झिल्ली-सी का छा जाना...रेखा ने कहा कि पहुँचाने की ज़रूरत नहीं है, वह चली जाएगी, पर उसने कहा था कि उसे भी कश्मीरी गेट ही जाना है-और बिलकुल झूठ भी नहीं कहा था, क्योंकि जिस काम से उसे जाना था वह कश्मीरी गेट में भी हो सकता था...सीढ़ियों के नीचे ही रेखा ने कहा, “चन्द्र, तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद-गौरा से मिल कर मुझे बड़ी खुशी हुई-” फिर वह तनिक रुकी, मानो और कुछ भी कहने वाली हो, पर फिर सहसा, “अच्छा नमस्कार!” कहकर मुड़ी और सीढ़ियाँ चढ़ गयी। चन्द्र बाहर की ओर को मुड़ गया। हल्की-सी बारिश अब भी हो रही थी, पर चन्द्र ने उसकी परवाह न की।

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