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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“तब तो और भी नहीं रेखा जी; मैं आप की दी हुई चीज़ वापस नहीं कर रही-अवज्ञा न समझें-पर आपकी माँ की अँगूठी मैं कैसे ले सकती हू्रँ?” अँगूठी उतारकर वह रेखा का हाथ खोजने लगी।

रेखा ने कहा-”गौरा मैं।”

“नहीं, नहीं, नहीं!” गौरा अँगूठी फिर रेखा को पहनाने का यत्न करती हुई बोली, “आप मुझे चूड़ियाँ दे दीजिएगा, मैं पहनूँगी; पर यह।”

“चूड़ियों की बात तो अलग है। वह तो मेरी बंगालिन आँखों का खटका था कि तुम्हारी कलाइयाँ सूनी हैं, पर यह तो मेरा ट्रिब्यूट.....”

“मुझे शर्मिन्दा मत कीजिए रेखा जी! अच्छा, आप मेरी ओर से ही रख छोड़िए-फिर कभी दे दीजिएगा-या मैं माँग लूँगी।”

“फिर कब? यह टालने की बात है।”

“नहीं सच; कभी जब-आपकी माँ ने आपको यह कब दी थी?”

रेखा का हाथ सहसा शिथिल पड़ गया। अँगूठी उसकी माँ ने उसे सगाई पर दी थी। वह कुछ बोल न सकी; गौरा ने अँगूठी उसे पहना दी, और क्षण भर उसका हाथ अपने हाथ में लिए रही। फिर सहसा उसकी शिथिलता और उसके चेहरे का अनुपस्थित भाव देखकर बोली, “आप नाराज़ तो नहीं हो गयीं रेखा जी? यू आर वेरी काइंड-लेकिन यह तो।”

रेखा ने सँभल कर कहा, “ठीक कहती हो, गौरा।” धीरे-धीरे हाथ खींच कर वह फिर अपनी जगह जा बैठी। गौरा भी उठी, पहले दीवार की ओर बढ़ी कि स्विच दबाकर कमरे की बत्तियाँ जला दे, पर अध-बीच में रुककर उसने हाथ खींच लिया; झुककर तबले उठाये और अन्दर चली गयी।

रेखा ने उसकी प्रत्येक भंगिमा को लक्ष्य किया था। उसी का लिहाज करके गौरा बत्तियाँ नहीं जला गयी। उसने ज़ोर से अपने को हिलाया; चन्द्र की ओर देखा, सायास मुस्करायी और बोली, “अब मेघ-संगीत सुनाऊँ?”

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