ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
बादल की गड़गड़ाहट में वर्षा का सरसराता स्वर भी मिल गया था। पर किसी को उसका ध्यान नहीं था। तबले का स्वर कभी धीमा और तरल, कभी चौड़ा और परुष, कभी हलका और दौड़ता हुआ, धुँधलके में भर गया था। रेखा एकटक गौरा के हाथों को देख रही थी; पर हाथों की आकृति अब स्पष्ट नहीं दीखती थी, तबले के पड्डे और स्याही के वृत्तों पर उनकी छाया-सी ही पहचानी जाती थी। रेखा दबे-पाँव उठी, मैंटल पर से लैम्प उठाकर उसने गौरा के पास ज़मीन पर रखा, फिर उसका छादन तिरछा करके बटन दबाकर उसे जला दिया-ऐसे कि प्रकाश तबलों पर और कलाई तक गौरा के हाथों पर पड़े। आलोक के लम्बोतरे घेरे में गलीचे का नीला-भूरा पैटर्न दीखने लगा।
रेखा फिर मुग्ध-सी गौरा की थिरकती उँगलियों को देखती रही; चन्द्र छत के पंखे की ओर टकटकी लगाये सुन रहा था।
सहसा एक थाप के साथ सन्नाटा हो गया जिसमें तबले का स्वर ही थोड़ी देर गूँजता रहा, फिर वह बारिश के स्वर में लय हो गया। गौरा ने एक लम्बी साँस ली।
रेखा बढ़कर नीचे गौरा के पास बैठ गयी, अपने दोनों हाथ उसने तबलों पर टिके हुए गौरा के हाथों पर रख दिए। कुछ बोली नहीं। फिर सहसा उसने हाथ उठाकर अपनी अनामिका से अँगूठी उतारी और नरम हाथ से गौरा का हाथ अपनी ओर खींचते हुए उसकी उँगली में पहना दी।
गौरा ने अचकचा कर कहा, “रेखा जी-यह क्या-नहीं रेखा जी, यह नहीं-” और घबड़ाये-से हाथों से अँगूठी उतारने लगी।
“रहने दो, गौरा; कटहला शायद तुम्हारे हाथ के लायक नहीं है, पर यह मेरी माँ की अँगूठी है।”
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