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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


गान समाप्त होने पर थोड़ी देर मौन रहा। फिर गौरा ने पूछा, “बहुत अच्छा गाती हैं आप। यह रवीन्द्र-संगीत है न?”

“हाँ।”

फिर एक विकल्प के बाद चन्द्र ने कहा, “गौरा जी, आप-?”

गौरा ने रेखा की ओर उन्मुख होकर पूछा, “मैं सिर्फ तबला सुनाऊँ आपको-अच्छा लगेगा?” फिर चन्द्र की ओर मुड़कर, “और कोशिश करूँगी बादल से सुर मिलाने की-”

“हाँ, हाँ, ज़रूर।” चन्द्र ने उत्साह से कहा।

गौरा भीतर जाकर जोड़ी उठा लायी, फ़र्श पर बैठ गयी। तबलों को ठोकने-खींचने लगी तो चन्द्र ने रेखा से पूछा, “आपने वर्षा का गीत क्यों न सुनाया?”

रेखा ने उत्तर न दिया। कमरे में प्रकाश और भी धुँधला हो गया था; चन्द्र उसके चेहरे के भाव को ठीक-ठीक देख भी न सकता था।

गौरा ने कहा, “मैं धम्मार में एक परण सुनाती हूँ।”

ताल वाद्य सबसे प्राचीन वाद्य है; नृतत्वविद् इसका कारण यह बताएँगे कि मानव बुद्धि ने पहले धमाके की ही संगीतात्मक सम्भावनाओं को पहचाना-या कि ताली से आगे बढ़ने पर किसी न किसी चीज़ को पीटना ही ताल देने का सरल माध्यम है। ऐतिहासिक दृष्टि से वह ठीक ही होगा। पर संगीतात्मक दृष्टि से ऐसे वाद्यों का महत्त्व यह है कि मौलिक प्राकृतिक शक्तियों की, प्रकृति के क्रीड़ा-कल्लोल की, सम-स्वरता वे ही सबसे अच्छी तरह कर सकते हैं - हवा, बादल, आँधी, पानी, बिजली, लहर, दावानल, जलप्रपात... ढोल-मादल-मृदंग-तबले की थाप मानव को जिस सहज भाव से इनके निकट ले जा सकती है, इनके साथ एकतानता स्थापित कर सकती है, दूसरे वाद्य नहीं कर सकते...

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