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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


सड़क के पार, कालेज की बगल में एक होटल का बोर्ड था 'होटल एण्ड बार'। क्या वहीं? चन्द्र थकी चाल से उधर बढ़ा, पर अध-बीच में तिकोने पार्क के सिरे पर रुक गया, फिर दाहिने मुड़कर कुछ आगे बढ़ा और फिर निकलसन रोड की ओर मुड़ गया। कोई दो फ़र्लांग जाकर एक और जगह थी। यहाँ वह बहुत दिनों से नहीं आया था, पर पहले अक्सर आया करता था...।

पहले...अन्दर कुरसी पर बैठते हुए उसे याद आया, पीते लोग उन दिनों भी थे ही, पर उसका पीने आना मानो उसके लिए बड़ी असाधारण घटना थी, उसके लिए ही नहीं, यों भी...और जब एक बार वह हेमेन्द्र के साथ आया था - हेमेन्द्र और उसके मित्र के साथ, और मित्र अनभ्यस्त मात्रा में पी जाने के कारण धुत्त हो गया था और दोनों उसे उठा कर ले गये थे...हेमेन्द्र था सो था, पर था ज़िन्दादिल आदमी; वैसे हमप्याला कहाँ मिलते हैं...उसने पुकारा, “बेयरा?”

बेयरा ने आकर सलाम किया। फिर ज़रा ध्यान से देखकर सहसा दुबारा सलाम किया, किंचित् मुस्कराहट के साथ। तो यह उसे पहचानता है...चन्द्र को अच्छा लगा। उसने पूछा, “बियर है? कौन-सी?” पर बेयरा उत्तर दे इससे पहले ही फिर कहा, “अच्छा नहीं, ह्विस्की ले आओ।”

“कौन-सी, सा'ब।”

“अच्छा, सोलन ले आओ। बड़ा पेग-डबल।”

बेयरा चला गया। चन्द्रमाधव ने सिगरेट जलायी और कुरसी में आराम से पीठ टेक कर धुआँ उड़ाने लगा।

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