ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“कुछ स्तब्ध, कहीं निश्चलता, कहीं न जाने, कैसी एक शान्ति”...
“मैं एक खड़ा हुआ पानी थी : एक झील, एक पोखर, एक छोटा ताल, शैवालों से ढँका हुआ। तुम ने आँधी की तरह आकर मुझ को आलोड़ित कर दिया, मुझ में अनन्त आकाश को प्रतिबिम्बित कर दिया। मुझे कहने दो, भुवन, मेरी यह देह जैसे तुम्हारी ओर उमड़ी थी, वैसे कभी नहीं उमड़ी, शिरा-शिरा ने तुम्हारा स्पर्श माँगा, तुम्हारे हाथों का स्पर्श, तुम्हारी बाँहों की जकड़, तुम्हारी देह की उत्तेजित गरमाई...लेकिन-तुम में डर था-डर नहीं, एक दूर का कोई अनुशासन, कोई एक मर्यादा, जिसके स्रोत तक मेरी पहुँच नहीं थी। और जिससे छुआ जाकर मेरा तूफ़ान सहसा शान्त हो गया, मैं फिर उसी तल पर पहुँच गयी जिस तल पर ताल सदा से था-ढँका हुआ निश्चल, खड़े पानी का एक उद्देश्यहीन जमाव।
“लेकिन नहीं। यह ढँका नहीं, आकाश का प्रतिबिम्ब उसमें रहा; फिर तुम ने फिर मुझे जगा दिया - क्षण-भर के लिए, लेकिन पहचान के क्षण के लिए, अनन्य-सम्पृक्त एक क्षण के लिए - भुवन, मैं तुम्हारी हूँ, तुम्हारी हूँ, तुम्हारी हूँ...”
“न, मैं कुछ माँगूँगी नहीं। तुम्हारे जीवन की बाधा नहीं बनूँगी, भुवन, उलझन भी नहीं बनूँगी। सुन्दर से डरो मत-कभी मत डरना-न डरकर ही सुन्दर से सुन्दरतर की ओर बढ़ते हैं।
“लेकिन भुवन, मुझे अगर तुम ने प्यार किया है, तो प्यार करते रहना - मेरी यह कुंठित, बुझी हुई आत्मा स्नेह की गरमाई चाहती है कि फिर अपना आकार पा सके, सुन्दर मुक्त, ऊर्ध्वाकांक्षी...”
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