ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
चौथे-पाँचवें दिन भुवन पहलगाँव आया। सीधा होटल गया। मालूम हुआ कि रेखा वहाँ ठहरी नहीं, उसी दिन चली गयी। फिर वह डाकघर डाक पूछने गया। हाँ, तीन-चार चिट्ठियाँ थीं। उसने ले ली। हाँ, एक बड़े लिफाफे पर रेखा के अक्षर थे। उसने लिफाफा खोला। एक पत्र नहीं था, अलग-अलग कागज़ के कई टुकड़े थे। भुवन ने जहाँ-तहाँ पढ़ा-एक-आध जगह कविता की पंक्तियाँ थीं-
आई सेड टु माइ सोल : बी स्टिल, एण्ड वेट विदाउट होप
फ़ार होप वुड बी होप आफ़ द रांग थिंग , वेट विदाउट लव
फार लव वुड बी लव आफ़ द रांग थिंग , देयर इज़ येट फेथ;
बट द फेथ एण्ड द लव एण्ड द होप आर आल इन द वेटिंग।
(मैंने अपनी आत्मा से कहा : स्थिर हो और बिना आशा के प्रतीक्षा कर क्योंकि आशा सत् की आशा होगी ; बिना प्रेम के प्रतीक्षा कर, क्योंकि प्रेम असत् का प्रेम होगा। श्रद्धा फिर भी रह जाती है, किन्तु श्रद्धा और प्रेम और आशा सब प्रतीक्षा में ही हैं।-टी. एस. एलियट)
फिर भुवन ने सब कागज़ जेब में डाल लिए कि तुलियन जाकर एकान्त में पढ़ेगा...”मैं सोचना चाहती हूँ, पर सोच नहीं सकती। ठीक सोचना ही चाहती हूँ, इसमें भी सन्देह हो आता है।
“कुछ महान्, कुछ विराट् घटित हुआ है, ऐसा थोड़ा-सा आभास होता है। लेकिन कहाँ? मुझ में? मैं उस विराट् का वाहन हूँ, माध्यम हूँ-मैं अकिंचन, नगण्य, मैं जो अगर कभी थी भी अब नहीं हूँ! मुझ को? मेरे साथ?
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