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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“सोचती हूँ, जीवन के हर मोड़ पर मुझे स्नेह मिला है, करुणा मिली है, साहाय्य मिला है। इतनी करुणा, इतनी अनुकम्पा, इतनी भलाई - कभी मैं अपने ऊपर खीझ उठती हूँ कि मुझ में क्यों नहीं एक प्रतिस्फूर्ति जागती - क्यों मैं ऐसी अचल अचेतन हूँ? कृतज्ञता-हाँ, कृतज्ञता बहुत है, पर कृतज्ञता जीवन को सच नहीं बनाती, प्यार सच बनाता है; क्योंकि कृतज्ञता में व्यथा नहीं है, और बिना व्यथा के सत्य नहीं है, कितनी सच बात कही थी तुमने हमारे पहले विवादों में - आज व्यथा में मैं उस सच को जानती हूँ, भुवन! पर क्यों सब कुछ अयथार्थ है, क्यों कुछ भी मुझे नहीं छूता? तुम भी, भुवन, तुमसे मैंने पूछा था कि तुम यथार्थ हो? क्योंकि मैं जागी थी और एक बड़ी विमूढ़ता मुझ पर थी - एक समर्पण मेरे भीतर रो रहा था पर अयथार्थ को मैं समर्पण करना नहीं चाहती थी...वह डर... अयथार्थ को समर्पण करने का डर क्या होता है भुवन, तुम जानते हो? न, तुम कभी न जानो वह डर...।

“लेकिन उस शाप से मैं मुक्ति पा सकी, भुवन, थोड़ी देर के लिए ही, चाहे बीच-बीच में कुछ क्षणों के लिए ही, मैंने पहचाना कि तुम हो, सचमुच हो, कि तुम्हीं को मैंने समर्पण किया है।”

“मेरी यह सोयी अवस्था फिर से लौट आयी है, पर वैसी जड़ नहीं - मैं मानो स्वप्नाविष्ट हूँ। स्वप्न में चलती हूँ, खाती-पीती हूँ, काम करती हूँ, और करूँगी।”

“भविष्य मैं अब भी नहीं मानती। तुम्हारे मन, हृदय, आत्मा की बात मैं नहीं जानती; नहीं जानती कि मेरे तुम्हारे जीवन में आने का क्या अर्थ या महत्त्व है। यह भी नहीं जानती कि तुम्हारे जीवन में आयी हूँ कि नहीं। लेकिन पूछूँगी भी नहीं। साल-भर पहले - अभी कुछ महीने पहले तक भी - हम राह पर इस तरह मिलते-मिलने की सम्भावना भी होती - तो मैं उस मिलने का भविष्य जानना चाहती। जानना चाहना ही स्वाभाविक होता। पर अब मैं अपने को अंकुश देती हूँ कि पूछूँ, पर प्रश्न मेरी जीभ पर नहीं आता - मेरे मन में ही ठीक आकार नहीं लेता, कि स्वयं अपने से भी पूछ सकूँ। फुलफ़िल्ड : शान्त स्तब्ध, निर्वाक, मैं बस हूँ; कोई प्रश्न मेरे भीतर नहीं उठते और भविष्य से मैं कुछ पूछना नहीं चाहती।

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