ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
उसमें अर्थ है, गहनतर अर्थ, उस धीरे-धीरे दुलराते हाथ में...।
झील बिल्कुल छिप गयी। केवल एक सफेद धुन्ध की दीवार : कहीं कोई दिशा नहीं, क्षितिज नहीं; दोनों धुन्ध में खो गये, केवल वे दोनों, तम्बू का चँदोवा, और धुन्ध, धुन्ध, व्यापक धुन्ध...।
भुवन ने सहसा उदास होकर कहा, “कल”
रेखा ने सहसा उसे रोक दिया। कल कल, आज क्यों? वह नहीं कहने देगी भुवन को कुछ भी-पर भुवन ने जब फिर कहना चाहा, “कल इस समय” तो रेखा ने बढ़कर अपने ओठ उसके ओठों पर रख दिये और उसे चुप करा दिया।
बस इतना ही, चँदोवा भी नहीं, धुन्ध में केवल चेहरे, केवल मिली हुई आँखें, ओठ।
लेकिन रात को जब भुवन ने बड़े आदर से उसे अपने पास लिटा कर अच्छी तरह उढ़ा दिया, और एक कुहनी पर टिके-टिके धीरे-धीरे उसे थपकने लगा, तब एक बड़ी गहरी उदासी ने उसे पकड़ लिया। भुवन की किसी बात का कोई उत्तर उसने न दिया, उसके पास लेटी, एक शिथिल हाथ उसकी कमर पर डाले, अपलक, शून्य, न देखती हुई दृष्टि से उसकी छाती की ओर देखती रही। भुवन जब बहुत आग्रहपूर्वक पूछता, तो कभी अंग्रेज़ी में, कभी बांग्ला में, कभी हिन्दी में कुछ गुनगुना देती-कभी पद्य, कभी गद्य-अपनी ओर से कुछ न कहती। एक बार भुवन ने कुछ शिकायत के-से स्वर में कहा, “तुम सिर्फ कोटेशन बोल रही हो-अपना कुछ नहीं कहोगी?”
तब उसने खोये-से स्वर में कहा, “अपना? अपना क्या? मैं सिर्फ कोटेशन बोलती हूँ, भुवन, क्योंकि मैं स्मृति में जी रही हूँ।”
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