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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन चुप हो गया। धीरे-धीरे रेखा की आविष्ट उदासी उस पर छा गयी, उसने धीरे-धीरे अपना सिर रेखा के माथे पर टेक दिया और निश्चल हो गया। बीच-बीच में वह अनमने हाथ से उसे दो-एक बार थपक देता, या अनमने ओठों से उसकी पलकें छू लेता, बस।

बहुत हल्की-सी बारिश होने लगी। तम्बू पर बूँदों की थाप पहले तीखी पड़ी, पर वह जैसे-जैसे भीगता गया वह थाप भारी होती गयी; थोड़ी देर में एक मन्द्र एक स्वर उनके उदास राग में तानपूरे की संगत करने लगा...।

न जाने कब धीरे-धीरे दोनों सो गये। प्रकृति का कोई अर्थ नहीं है, अभिप्राय नहीं है, केवल उद्देश्य; प्राणिमात्र उनके अनुगत हैं।

11


वापसी का रास्ता सदैव बहुत छोटा होता है; विशेषकर जब दुनिया की छत पर से नीचे उतरें : वह उतराई वैसी नहीं होती कि पैर पसार कर, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मानो मुक्त, हवा पर तिर जायें और जाकर उतरें न जाने कहाँ दूर, दूर वायुमण्डल के पार एक श्वासरुद्ध, निरे आलोक की दूसरी दुनिया में; यह उतराई होती है नीचे-मिट्टी की, लोगों के पैरों से रौंदी हुई, धरती पर...

पहलगाँव दीखने लगा, तो रेखा ने धीरे-धीरे, बिना आग्रह के, मानो उसकी बात न भी मानी जाये तो कोई बात नहीं ऐसे कहा, “अभी तो नहीं पहुँचे होंगे-उधर से ऊपर से चलें”

भुवन तुरत मुड़ गया।

चलने से पहले भुवन ने कहा था, “रेखा, अभी क्या जल्दी है; और दो दिन रह जाओ-मैं कल जाकर सामान लिवा लाऊँ”

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