ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“एक दिन कोक वहाँ आये, उन्होंने राजकुमारी को देखा। उससे आँखें चार होते ही सहसा वह लजा गयी; उसे लगा वह नंगी है; भाग गयी और जाकर कपड़े पहन लिए।”
वह बहुत देर तक रुकी रही। फिर भुवन ने कहा, “ 'फिर' पूछने की इजाज़त है?”
“बस। इतनी ही कहानी मैं सुनाना चाहती थी। वैसे बाद में कोक से उसका विवाह हुआ, और उसी को अपने सब रहस्य सिखाने के लिए कोक ने अपना ग्रन्थ लिखा। पर वह अलग कहानी है।”
“ओः!” कहकर भुवन चुप हो गया।
रेखा ने सहसा फिर कहा, “यह कहानी मुझे जानते हो किसने सुनायी थी? देखो, मेरा शाप छूट गया है, मैं नाम ले सकती हूँ - हेमेन्द्र ने। क्यों, कब, यह नहीं बताना होगा। पर उसे भी पुरुष करके मैंने जाना नहीं था।”
भुवन उसे चुपचाप देखता रहा। फिर एक लम्बी साँस उसने ली। उठकर आया, धीरे-धीरे रेखा के केश सहलाता रहा।
थोड़ी देर बाद बोला, “अच्छा चलो तैरने।”
“चलो, मैं आती हूँ।”
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