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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


7


तीसरे पहर दोनों पहाड़ की चोटी पर थे, खुली धूप में। हाथ पकड़े-पकड़े एक बार उन्होंने चारों ओर देखा। निर्जन - कहीं कोई नहीं दीख रहा था। एक ओर झील का विशाल मुकुर, और सब ओर आकाश, नीला, मुक्त-अतल...।

रेखा ने कहा, “देखो, हम दुनिया की छत पर हैं।”

तैरने के बाद बदन सुखा कर वह धूप में लेटे रहे थे। फिर लौट कर खाना खाया था, और थोड़ी देर के लिए फिर धूप में आये थे, उससे शरीर अलसा गया तो जाकर थोड़ी देर सो गये थे। फिर रेखा ने उठकर उसे उठाया था, दोनों बिस्तर ठीक कर दिये थे, “घूमने नहीं चलोगे - फिर धूप चली जाएगी?” और उसी तरह भटकते हुए नंगे पैर ही दोनों यहाँ तक चढ़ आये थे...

भुवन एक चपटी चट्टान पर पाँव फैलाकर बैठ गया।

रेखा ने खड़े-खड़े पूछा, “भुवन, मेरी मोहलत कब तक की है?”

भुवन अचकचा गया। कुछ उत्तर न दे सका।

“बोलो?”

भुवन ने धीरे-धीरे कहा, “परसों पहलगाँव जाना होगा, सामान लिवाने...”

रेखा ने शान्त स्वर से कहा, “अच्छा।” उसमें कोई आक्रोश, प्रतिवाद, आवेश, कुछ नहीं था, केवल एक स्थिर स्वीकार। उसने दोनों हाथ उठाकर एक बड़ा वृत्त बनाते हुए फैलाये और फिर नीचे गिरा लिए-न मालूम अँगड़ाई लेते हुए, या उस विस्तीर्ण आकाश को बाँहों में समेटते हुए।

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