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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“हटो-तुम से नहीं तो और किस से लजाऊँगी? और कौन...” और रेखा तम्बू के अन्दर भाग गयी।

भुवन ने नीचे जाकर खानसामा से कहा कि दोपहर का कुछ हल्का भोजन तैयार करके रख दे, और फिर पहलगाँव जाकर और जो-कुछ ताज़ा सामान लाना हो ले आवे - दो दिन के लायक, क्योंकि परसों फिर नीचे जाना होगा बाकी सामान के लिए। अभी वे लोग तैरने जाएँगे, लौट कर स्वयं कुछ खा लेंगे। खानसामा ने केवल कहा, “हुजूर, पानी बहुत ठण्डा है,” और अपने काम में लग गया।

भुवन तम्बू में गया। रेखा मेज़ के पास खाट के सिरे पर बैठी कुछ सोच रही थी।

“फिर कुछ लिखना चाहती हो? तुम पहले जीती हो और फिर लिखती हो, कि पहले लिखती हो फिर जीती?”

“यही भेद नहीं पहचान पा रही हूँ - यह मेरा सौभाग्य है। और तुम्हारा वरदान।” कुछ रुककर वह बोली, “मैं कहानी लिखने जा रही थी - तुम्हारे पढ़ने के लिए। पर तुम्हें सुना ही देती हूँ।”

भुवन ने घुटने टेककर कुहनियाँ मेज़ पर रखी, ठोड़ी हथेली पर जमायी, बिलकुल बच्चों की-सी मुद्रा बनाता हुआ बोला-”सुनाओ।”

“हँसना मत! तुम ने पंडितराज कोक का नाम सुना है?”

“हाँ, पर यह भी सुना है कि सभ्य लड़कियाँ उसका नाम नहीं लेतीं।”

“नहीं लेती होंगी। उनको हक ही नहीं होगा। पर बीच में मत बोलो, नहीं तो नहीं कह पाऊँगी। कोक कश्मीर-राज के मन्त्री थे, पर कैसे हुए इसी की कहानी है। राजा की एक कन्या थी। राज-भर में नंगी फिरा करती थी। टोकने पर कहती थी, 'मुझे काहे की शरम? राज्य में मैं किसी को पुरुष मान कर देखूँ तब तो लजाऊँ? मैं किसी को देखती ही नहीं।”

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