ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
(मैं एक प्राचीर हूँ, और मेरे उरोज मानो दुर्ग; मुझे तुम ने अपनी अनुकम्पा का पात्र पाया है।)
ऐसा ही भोर के चोर-पैर आलोक ने उन्हें पाया। पर जगाया नहीं, चुपके से एक ओर हो गया। फिर धूप की एक किरण तम्बू के पल्ले से झाँकती हुई आयी - पर आगे नहीं बढ़ी।
रेखा उठी। पल्ले को खोल कर उसने गिरा दिया, एक क्षण-भर भुवन की ओर निहारा, फिर बाहर चली गयी।
अनन्तर भुवन उठा। अचंचल हाथों से उसने रेखा के कम्बल उठाकर उसके बिस्तर पर डाले, अपने बिस्तर की सलवटों को ठीक-ठाक किया, पल्ले की ओर बढ़ा पर लौट गया, भीतर जाकर मुँह धोया और पोंछता हुआ बाहर निकला; एक बार चारों ओर नज़र दौड़ायी; रेखा के तकिये में जो गड्ढा था जहाँ उसका सिर रहा होग।
सहसा झुककर उसे चूमा, फिर तम्बू के दोनों पल्ले उलट दिये और बाहर निकल दोनों बाँहें फैला कर सूर्य की धूप को गले से लगाते हुए मानो नये दिन का अभिनन्दन किया।
धूप चढ़ आयी। नाश्ते के बाद भुवन ने पूछा, “तैरने चलोगी?”
“हाँ। मैं कास्ट्यूम लायी हूँ!”
“पानी बहुत ठण्डा है - जम जाओगी।”
यह वाक्य प्रतिध्वनि-सा लगा। सहसा स्मृति की बाढ़ आयी। “तुम तो-चाँदनी में ही जम गयी थी!” भुवन की आँखें मिलीं, उनमें कौतुक था। रेखा ने आँखें नीचे करते और मुँह दूसरी ओर फेरते हुए कहा, “और तुम-तुम पिघल गये थे?”
फिर सहसा लज्जित होकर सिमटती-सी दूसरी ओर चल दी।
भुवन ने पास जाकर कहा, “लजाती हो-मुझ से-अब?”
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