लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“मैं स्वप्न देख कर उठी हूँ, तुम सो रहे हो, सोओ, मैं जगाऊँगी नहीं। पहले मन हुआ था, स्वप्न तुम से कह दूँ, पर नहीं। तुम्हें देखकर न जाने क्यों एक पंक्ति मन में आयी-तुमने पूछा था एक बार, “कविता लिखती हो?” हाँ, एक कविता मैंने भी लिखी है, पर मेरी कविता उसके शब्द में नहीं है, उसकी भावना में है - तुम पहुँचोगे?

शुभाशंसा चूमती है भाल तेरा-
स्नेह-शिशु, उठ जाग।

“तुम सोओ। अपने स्वप्न के लिए तुम्हें नहीं जगाऊँगी। स्वप्न में मैंने तुम्हारे प्रिय किसी को देखा था। न मालूम कौन होगी वह, लेकिन मैंने उसे देखा था, पहचाना था और वह तुम्हें बहुत प्रिय थी। उसे देखकर मेरे मन में स्नेह उमड़ आया - ईर्ष्या होनी चाहिए थी पर नहीं हुई। भुवन, मैं तुम्हारे जीवन में आऊँगी और चली जाऊँगी - मैं जानती हूँ अपने भाग्य की मर्यादाएँ! पर तुम्हें जो प्रिय हैं उन्हें प्यार कर सकूँगी - सहज भाव से, बिना आयास के। और सोचती हूँ, तुम्हारी करुणा सदैव मुझे शान्ति दे सकेगी।”...

'तुमने मेरे जूड़े में लाल फूल खोंस कर मेरा सिर ढक दिया है; तुमने मेरी पलकें, मेरा मुँह...एक धधकते हुए प्रभा-मण्डल से मेरा शीश घिर गया है... क्या इसकी दीप्ति दुर्भाग्य के उस मण्डल को छार न कर डालेगी जो मेरे साथ रहा है?'

'मैंने तुम्हें गाना सुनाया था - शारद प्राते आमार रात पोहालो। मेरी वंशी, तुम्हें किसके हाथ सौंप जाऊँगी? अब सोचती हूँ, क्या उसमें भवितव्य की सूचना थी - क्या मैं तब जान गयी थी, देख सकी थी...। मूक मेरी वंशी, अभी सहसा तुम्हारी बहकी हुई साँस से मुखर हो उठी है, और अभी मूक हो जाएगी। होने दो, चुकने दो रात! मैंने गाया था, महाराज, यह किस साज में आप मेरे हृदय में पधारे हैं? उसमें कौतुक भी है, अचरज का चकित भाव भी है, और अपनापे की द्योतक ठिठोली भी है - कोटि शशि-सूर्य लजाकर पैरों में लोट रहे हैं; महाराज, यह किस ठाठ से आप मेरे हृदय में पधारे हैं - मेरा देह-मन वीणा-सा बज उठा है...।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book