लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


'तुम चले जाओगे - मैं जानती हूँ कि तुम चले जाओगे। मैं आदी हूँ कि जीवन में कुछ आये और चला जाये - मैंने हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ना चाहना भी छोड़ दिया है - कौन पकड़ कर रख सकता है? बचपन में माँ एक कहानी सुनाया करती थी, कोकिल का स्वर सुनकर राजा उसे पकड़वा मँगाते थे पर वह चुप हो जाता था। माँ कहती थीं, कोकिल को पकड़ लिया जा सकता है, पर गान बन्दी नहीं होता। तब मैं सोच लेती थी, बन्दी करना मैं क्यों चाहने लगी? मैं स्वयं गाऊँगी! पर अब माँ की बात याद आ जाती है...नहीं, गान को बन्दी करना नहीं चाहूँगी। और हाँ, गाऊँगी भी, चाहे टूटे स्वर से-मेरा गान तुम सुनोगे?'...

'हम हार गये। तुम ने कहा था, हम हार गये, सूर्यास्त को नहीं पकड़ सके। फिर तुमने कहा था - कहा नहीं, उद्धृत किया था, “उसके केशों में सात तारे थे।” पर अब अपनी ओर देखती हूँ तो सोचती हूँ, मुझमें? नहीं, मुझमें केवल अन्धकार की एक बहुत बड़ी लहर - हट जाओ भुवन, मैं तुम्हें प्यार करती हूँ पर मेरा संस्पर्श विषाक्त है...!

“तुमने डर की बात कही थी। वह एक चीज़ है जो मैंने पहले कभी नहीं जानी। दुःख-हाँ, वह खूब जाना है, अपमान, ग्लानि, ईर्ष्या - ये भी सहे हैं, पर डर...। मगर डर को छूत होती है शायद, और तुम्हारा वह नामहीन डर मुझे भी छूता है, एक सिहरन-सा वह मेरी रीढ़ पर से उठता हुआ मेरे मन पर छा गया है – था - किसका डर? तुम से डर? तुम से!! तुम्हारे लिए डर? तुम्हें खो दूँगी, यह? लेकिन तुम्हें पाया है, यही तो कभी नहीं सोचा। जागने का डर? न जाने कब से मेरा मन, मेरी आत्मा, मेरी देह, सब सोयी हैं, जड़ हैं, और जड़ से इतर कोई स्थिति मैं सोचती ही नहीं। आग सुलगती है, धधकती है, ईंधन चुका कर धीमी पड़ जाती है; वैसी आग फिर भड़क सकती है। लेकिन मुक्त आग को बुझा दो - तब राख, कोयले, अध-जली लकड़ी - वह मैं हूँ। उठी हुई लहर जो वहीं जम गयी है। पीछे नहीं जा सकी, पीछे गर्त है - हर तरंग के पीछे गर्त होता है। आगे नहीं जा सकती - गति जड़ हो गयी है। जम गयी हूँ, पिघलूँगी तो पछाड़ खा कर गिरूँगी - क्या वही डर है जो मुझमें जाग गया है - पिघलने का डर? लेकिन मैं तुम्हें अपने से बचाऊँगी भुवन...।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai