ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“शीत में बहुत ठिठुर जायें, तो नाक के ठिठुरने के साथ घ्राण-शक्ति मर जाती है। फिर बाहर, भीतर, फूलों में, मन्दिर के धूमायित वातावरण में - कहीं कोई गन्ध नहीं मिलती...। लेकिन फिर बिजली की कौंध की तरह सहसा और तीखी वह लौटती है, नासापुट गन्ध से भर जाते हैं, सौरभ की तरंग में मानो डूबने लगता है व्यक्ति, साँस बन्द हो जाता है...। वैसी ही स्थिति में मैं थी - बरसों की घ्राण-शक्ति-हत, और अब सहसा तुम्हारे धाम में तुम्हारे सौरभ ने छा लिया है...। मैं लड़खड़ा गयी हूँ, मूक हूँ, क्या कहूँ नहीं जानती, कैसे कहूँ नहीं सोच सकती... और तुम अभी चले जाओगे - कभी भी... फिर मिले - अगर मिले! तो शायद कुछ कह पाऊँ - मेरी स्तब्ध आत्मा कुछ...।'
'मैं जागती हूँ कि सोती हूँ? तुम हो, कि स्वप्न हो? मुझे लगता है कि मैं जागती हूँ, और आश्वस्त होकर सो जाती हूँ। लेकिन शायद सोती हूँ, सोते में देखकर जाग उठती हूँ...।'
रेखा बीच-बीच में उसकी ओर देख लेती थी। जानती थी कि वह कुछ सोच रहा है। पर उसने पूछा नहीं। सहसा भुवन के विषय में एक नये संकोच ने, एक व्रीडा ने उसे जकड़ लिया था। क्षण-भर के लिए उसका मन नौकुछिया की उस घटना की ओर गया जब भुवन उसकी गोद में रोया था - कैसे वह कह सकी थी जो भी उसने कहा था? वह पछताती नहीं है, उसने जो कहा था उन्मुक्त उत्सृष्ट भाव से कहा था, पर... लाज से सिहर कर वह सिमट गयी, पल्ला खींच कर उसने मानो अपने को और लपेट लिया।
भुवन ने पूछा, “ठण्ड लगती है?”
“नहीं, नहीं।” उसकी वाणी के अतिरिक्त आवेश को लक्ष्य कर भुवन ने उसकी ओर देखा; दोनों की आँखें मिलीं। भुवन की आँखों में स्नेहपूर्ण कौतुक था, रेखा की आँखों में एक अन्तर्मुख लज्जा; पर सहसा उसका मन हुआ, वहीं बाँह फैलाकर भुवन को खींच ले, इस पुरुष को, इस शिशु को, इस - 'शुभाशंसा चूमती है भाल तेरा...'
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