ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने चुपचाप फूल उसकी गोद में रख दिये। एक लच्छा लेकर उसके बालों में अटका दिया।
“ओः, आर्किड! तब यह बिदा है।”
ऐसा कोई सम्बन्ध भुवन ने नहीं देखा था। पर बोला, “रेखा, आज तो मुझे जाना होगा न।”
“सो-मैं जानती थी।”
भुवन उसके पास सीढ़ी पर बैठ गया।
“रेखा, तुमने मुझे क्षमा कर दिया?”
रेखा का हाथ टटोलता हुआ बढ़ा; भुवन के हाथ पर आकर शिथिल रुक गया।
“किस बात के लिए, भुवन?”
“सब कुछ। तुम जानती तो हो।”
“तुम्हारे क्षमा माँगने की तो कोई बात मुझे नहीं दीखती, भुवन! मैं ही....”
भुवन ने असल बात से कुछ हटते हुए कहा, “और मैं बहुत लज्जित हूँ, रेखा! पुरुष की आँखों में आँसू तो नामर्दी हैं – मैं... तुम क्या सोचती होगी न जाने।”
रेखा के हाथ के दबाव ने उसे चुप करा दिया, पर वह स्वयं कुछ देर तक कुछ नहीं बोली। फिर उसने कहा, “भुवन, मर्द के आँसू मैंने पहले भी देखे हैं। बड़ी व्यथा के आँसू-इसलिए कि उस पुरुष ने मुझे खो दिया है। बड़ी ग्लानि के आँसू - इसलिए कि वह पुरुष मुझे पा लेना चाहता है और पा नहीं सकता। पर तुम्हारे आँसू - किसी पर छाँह करते हुए उसके लिए रोना नामर्दी नहीं है, भुवन...।”
धीरे-धीरे उसने अपना हाथ खींच लिया। दोनों चुप, स्तब्ध बैठे रहे।
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