ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
कुछ खाने की इच्छा नहीं थी, पर भुवन ने खोये-से, रेखा को उसे नाश्ता करा लेने दिया। थोड़ी देर खोये-से ही दोनों बरामदे में आकर खड़े रहे, झील को देखते रहे। फिर वह क्षण आ ही गया।
रेखा ने अन्दर से एक पुलिन्दा लाकर देते हुए कहा, “यह लो अपना टूथ-ब्रश।”
भुवन ने कहा, “अच्छा रेखा; अब चलता हूँ।” वह कुछ रुका। “कहना चाहता हूँ मैं -तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ, पर शब्द ओछे हैं, नहीं कहूँगा। इतना ही कि - गॉड ब्लेस यू।”
“रुको” कहकर रेखा भीतर गयी। थोड़ी देर में एक छोटा-सा पैकेट और ले आयी। “यह भी लो।”
“क्या है?”
“जाते हुए रास्ते में देख लेना।”
भुवन ने एक लम्बे क्षण तक रेखा को देखा, आँखों ही आँखों में बिदा माँगी और दी, और चलने को मुड़ा।
“भुवन, यह भी लेते जाओ।”
रेखा ने बालों में से आर्किड निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिया। बाकी फूल उसने रख लिए थे।
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