ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
पर उसकी तसल्ली नहीं हुई। स्वयं उसके भीतर, और गहरे किसी एक स्तर पर एक संघर्ष है, इसका जैसे उसे थोड़ा-थोड़ा भान है; पर किस स्तर पर, यह वह नहीं जान पाता, और उसे कुरेद कर ऊपर भी नहीं ला पाता। मानो प्रयत्न छोड़कर उसका मन रेखा के कहे हुए वाक्यों पर उछटता-सा घूमने लगा : काल का प्रवाह नहीं, क्षण और क्षण और क्षण...। क्षण सनातन है... छोटे-छोटे ओएसिस... सम्पृक्त क्षण.. नदी के द्वीप... जो काल-परम्परा नहीं मानता, वह वास्तव में कार्य-कारण-परम्परा नहीं मानता, तभी वह परिणामों के प्रति इतनी उपेक्षा रख सकता है - एक तरह से अनुत्तरदायी है... पर इससे क्या? उत्तर माँगनेवाला कोई दूसरा है ही कौन? मैं ही तो मुझ से उत्तर माँग सकता हूँ और अगर मैं अपने सामने अनुत्तरदायी हूँ, तो उसका फल मैं भोगूँगा - यानी अपने अनुत्तरदायित्व का उत्तरदायी मैं हूँ...।
क्या यह-परसों और कल और आज - वैसा ही एक द्वीप है - सम्पृक्त क्षणों का द्वीप -काल-प्रवाहिनी में अटका हुआ एक अलग परम्परामुक्त खण्ड - जैसे रेखा कहती है? परसों, कल, आज, फिर महाशून्य - नहीं, आज, फिर दूसरा आज, फिर आज, तब महाशून्य!
सामने एक पेड़ पर सोनगाभा के पौधे लग रहे थे। और पेड़ों पर भी पत्ते लटकते भुवन ने देखे थे, पर इसमें फूल थे। रंग उनमें अधिक नहीं था - चम्पई, भीतर कत्थई और फूल की बावड़ी के बिलकुल बीचोंबीच में गहरा पीला-फिर भी, सोनगाभा...।
उसे जमुना के टापू का बालू का घरौंदा याद आ गया, जहाँ आर्किड लगाने की बात उसने कही थी। वह जैसे-जैसे पेड़ पर चढ़ा, कुछ नीचे से ही पौधे समेत फूल उसने नोच लिए और उतर आया। झाड़ पर फूल अलग करता हुआ लौट चला। रेखा बरामदे की सीढ़ियों पर बैठी थी। कुछ लिख रही थी। दूर से भुवन को देख कर कापी उसने बैग में डाल ली, और एकटक उसकी प्रतीक्षा करने लगी।
भुवन गम्भीर चेहरा लिए हुए आया। रेखा से आँखें उसने नहीं मिलायी, यह देख लिया कि उसका चेहरा भी गम्भीर नहीं तो एक बन्द चेहरा तो है ही; भीतर की कोई छाप उस पर नहीं दीख रही।
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