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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“बस डूबने भर को।”

“तब तो बहुत जानती हो। इतना तो मैंने भी नहीं सीखा। कलकत्ते में क्यों नहीं सीखा?”

तब रेखा हँस कर बोली, “जानती हूँ साहब, तैर लेती हूँ। पर इन कपड़ों में नहीं।”

“ओह।” भुवन झेंप गया। “तो लायी क्यों नहीं?”

“मुझे क्या मालूम था।”

“कास्ट्यूम तो नैनीताल में भी मिल जाता।”

“मुझे बताया था? नहीं तो मैं भी टूथ-ब्रुश खरीदने चल देती।”

किनारे पर ही वे नहाये थे। भुवन तैर कर भीतर गया था, रेखा ने भी साड़ी पहने-पहने दो-चार हाथ तैरने का यत्न किया था पर लौट आयी थी।

अपराह्न में वे बुरूसों की छाया में काही-बिछी ठण्डी जगह में बैठे-लेटे रहे थे। फिर लौट कर चाय पी थी; तब रेखा ने कपड़े बदल लिए थे।

“अच्छा, चलो घूमने चलें।”

“चलो। किधर?”

“फिर पहले प्रश्न? सामने-सर्वदा सामने।”

“नहीं, मेरा मतलब था, सात-ताल के जादुई ताल खोजने हैं कि....”

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