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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

8


“तुम फिर कुछ लिखती रही हो?”

“हाँ।”

“क्या?”

“कुछ नहीं। मेरी डायरी है।”

भुवन ने आगे नहीं पूछा। बोला, “अच्छा, अब तो गाना गाओगी?”

“न। तुम्हारी बारी है गाने की।”

“मैं। श्रेष्ठ गायक हूँ। मेरा गाना स्वरातीत है। दिन भर तो गाता रहा, तुमने सुना नहीं?”

“थोड़ा और श्रेष्ठ हो जाओ, तो मेरा सुनना भी सुन सको।”

तीसरे पहर रेखा ने कपड़े बदल लिए थे। वह फिर सफ़ेद पहनने लगी थी, लेकिन भुवन के आग्रह से उसने एक नीली साड़ी और नीला ही ब्लाउज़ पहन लिया था। अब कमरे की व्यवस्था ठीक-ठीक हो गयी थी, सामान लगाकर रख दिया था, खिड़की के पास रेखा का पलंग बिछा था और बरामदे में भुवन का - भुवन ने आग्रह कर के वहाँ लगाया था।

दिन भर वे प्रायः भटकते ही रहे थे। सुबह लौटकर नाश्ता किया था और फिर निकल गये थे, झील का एक चक्कर लगाया था; फिर लौटकर झील पर गये थे, नौ कक्षों में से जो एक सबसे खुला और शैवाल-रहित जान पड़ता था उसमें नहाये थे और फिर भोजन के लिए लौट आये थे। झील पर भुवन ने पूछा था, “तैरना जानती हो?”

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