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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“न। जादुई ताल यह है। नौ तहों का जादू है इस पर!”

वह पहाड़ पर ऊँचे चढ़ने लगे, फिर पहाड़ की उपत्यका के साथ-साथ सममार्ग पर।

दिन ढल आया था। थोड़ी देर में सूर्य पहाड़ी की ओट होकर छिप जाएगा। सहसा भुवन ने कहा, “चलो, सूर्यास्त को पकड़ें।”

दोनों हाथ पकड़े-पकड़े दौड़ने लगे। पहाड़ी के सिरे के पीछे सूर्य छिप रहा होगा - बादल नहीं थे, एक तेजोदीप्त नंगा लाल रवि-बिम्ब ही क्षितिज की ओट हो रहा होगा। अगर वे पहाड़ी के सिरे तक पहले पहुँच जायें तो देख सकेंगे।

दौड़ते-दौड़ते भुवन ने कहा, “दौड़ो, रेखा, हमारी सूरज से होड़ है।”

रेखा और तेज दौड़ने लगी। भुवन के हाथ पर उसकी पकड़ कुछ कड़ी और खींचती-सी हो गयी; भुवन ने लक्ष्य किया कि वह हाँफ रही है और सहसा धीरे हो गया, पर ऐसे नहीं कि रेखा को साफ़ मालूम हो।

पर पहाड़ी के मोड़ तक पहुँचते न पहुँचते सूर्य छिप गया। एक द्रुत हाथ मानो किसी धूसर लेप से सारा आकाश पोत गया; प्रकाश अब भी था, पर मानो किसी स्रोत से उद्भूत नहीं, दिग्भ्रान्त, आकाश में खोया-सा।

भुवन ने सहसा रुक कर कहा “हम हार गये।” जहाँ सूर्य डूबा था, वहाँ एक छोटी-सी लाल लीक थी, जैसे किसी ने 'इति शम्' लिख कर उस पर जोर देने को पुष्पिका बना दी हो।

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