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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“तुम और तुम्हारा अरिथमेटिक!”

पहाड़ी के मोड़ पर सहसा घने पेड़ों के झुरमुट की ओट में पानी की चमक। भुवन ने कहा, “थके राही, वह देखो मंजिल। इस झील का नाम है नौकुछिया-ताल।”

“थके तुम और तुम्हारा दुश्मन। लेकिन सचमुच यही नाम है?”

“हाँ।”

बड़ा साफ़-सुथरा कमरा। बड़ी टेबल लैम्प। बिजली के लैम्प में और रहस्य में वैर है, लेकिन तेल के लैम्प - आओ, रहस्य के सौन्दर्य, सौन्दर्य के रहस्य, इस छोटे से आलोक-वृत्त को घेर लो!

सामान न जाने कब आएगा। गर्म पानी से दोनों ने मुँह-हाथ-पैर धोये; एक लम्बी आराम-कुरसी भुवन ने खिड़की के पास खींच ली, जहाँ से झील और चाँद भी दीखता था, पैरों के लिए एक तिपाई रखी; फिर रेखा से कहा, “यहाँ बैठ जाओ।”

रेखा ने एक बार उसके चेहरे की ओर देखा, फिर उस आज्ञापने के स्वर का प्रतिवाद करने की उसकी इच्छा दब गयी। वह आराम से लेट गयी। भुवन खिड़की के चौखटे पर आधा बैठ गया।

“और एक कुरसी खींच लो न?”

“खींच लूँगा पीछे।”

रेखा ने कुछ अलसाये स्वर से कहा, “फ्राइडे, तुम नहीं गा सकते? वह एक जादू बाकी है अभी - फिर मैं मान लूँगी कि कामिल जादूगर हो।”

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