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			 ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
 “ज़रूर हैं, लेकिन जादू के बग़ैर नहीं दीखते। यों शायद तीन हैं - बल्कि अढ़ाई।” रेखा ने फिर पूछना चाहा, “क्या हम वहाँ जा रहे हैं?” पर रुक गयी। 
 
 दिन छिपते-छिपते दोनों भीमताल पहुँच गये। कुली भुवाली में ही पीछे रह गये थे। झील के पास ही डाकबंगला था; भुवन ने वहाँ जाकर चौकीदार से कहा कि कुली आवें तो उन्हें कह दे कि वह आगे चला गया है और कुली जल्दी आवें, फिर कुछ और पूछताछ भी करा ली और रेखा के पास लौट आया। 
 
 “क्या यहीं रुक रहे हैं हम?” 
 
 “नहीं, बस तीन मील और जाना है। थक तो नहीं गयी?” 
 
 “इर्रेलेवेंट बातें मत कीजिए,” रेखा ने उत्तर दिया और भुवन ने देखा, उसके चेहरे पर यद्यपि श्रम के लक्षण स्पष्ट हैं, पर उसकी एड़ी की गति में सहसा नयी लचक आ गयी है...।
 
 रात हो गयी थी। सप्तमी-अष्टमी का चाँद था। पथ बराबर हल्की उतराई का ही था। एक छोटे-से गाँव के पास से वे गुज़रे। भुवन ने कहा, “अब मील-भर और होना चाहिए।” 
 
 “अब भी नाम नहीं बताओगे जगह का?” 
 
 “नाम? नाम में क्या है? हमारा ही क्या नाम है? वहाँ एक तिलिस्मी झील है, और उसके नौ अलग-अलग कक्ष हैं, सब कभी एक साथ नहीं दीखते। रोज़ एक देखना होता है।” 
 
 “ओः, पूरा नाइन डेज़ वण्डर।” रेखा ने चिढ़ाया। 
 
 “हाँ, वही सही। लेकिन चार दिन की चाँदनी कहते हैं, तो मेरे वण्डर में दो पूरी चाँदनियाँ समा गयीं और फिर भी कुछ बाकी रह गया - समझीं?” 
 			
						
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