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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


ओ ये केड़े आमाय निये जाय रे,
जाय रे कोन चूलाय रे!
आमार मन भूलाय रे!
ग्राम छाड़ा ओई राङामाटीर पथ।

(रांगामाटी का गाँव से हटा हुआ पथ मुझे खींच कर ले जाता है न जाने किधर।)

बस, यही अढ़ाई पंक्ति, और फिर मुक्त भाव से आगे को दौड़ पड़ी। पीछे-पीछे भुवन भी दौड़ने लगा।

भुवाली से एक-डेढ़ मील आगे रेखा ने सहसा भुवन का हाथ पकड़ कर कहा, “वह देखो सामने - क्या वहीं हम जा रहे हैं!”

दिन ढलने लगा था। आकाश के विस्तार में एक हल्की-सी धुन्ध छाने लगी थी; अभी थोड़ी देर में इसी धुन्ध में साँझ का ताम्र-लोहित रंग बस जाएगा...। आस-पास की पहाड़ियाँ नैनीताल की तरह तंग नहीं थीं, एक के बाद एक तीन-चार खुले स्तर थे मानो पुरानी सूखी झीलों के थाल हों, और आस-पास पहाड़ियाँ क्रमशः नीचे होती गयी थीं। और धुन्ध के बीच में, जैसे किसी जौहरी ने सँभाल कर रूई के गोले पर कोई मूल्यवान रत्न रखा हो, एक झील चमक रही थी...।

“मुझे क्या मालूम है? हो सकता है। पर वह शायद भीमताल है। तब सात-ताल दाहिने को होगा।”

“वहाँ क्या सचमुच सात-ताल हैं?”

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